SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 999
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८४ __प्रज्ञापनासूत्र गौतम ! 'संतरं पि उपहुँति, निरंतरं पि उवट्ठति ?' नैरयिकाः कदाचित् सान्तरमपि उद्वर्तन्ते, कदाचित् निरन्तरमपि उद्वर्तन्ते ? 'एवं जहा उववाओ भणिओ तहा उव्वट्टणापि सिद्धवज्जा भाणि यव्या जाव वेमाणिया' एवम् पूर्वोक्तरीत्या, यथा उपपातो भणितस्तथा उद्वर्तनापि सिद्धवर्जा भणितव्या, यावद्-अमुरकुमारादि भवनपति पृथिवीकायिकादि पञ्चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियपञ्चन्द्रियतिर्यग्यो. निकमनुष्यवानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकवेयकपश्चानुत्तरोपपातिका अपि वक्तव्याः, किन्तु 'णवरं जोइसियवेमाणि रसु चयणंति अहिलावो काययो' नवरम् , विशेषस्तु ज्योतिष्कवैमानिकेषु च्यवनमिति अभिलापः कर्तव्यः, तेषामुद्वर्तनाया अभावात् , तथा च असुरकुमारादि वानव्यन्तरान्ताः जीवाः कदाचित् सान्तरमपि उद्वर्तन्ते, कदाचित् निरन्तरमपि उद्वर्तन्ते, ज्योतिष्कवैमानिकास्तु कदाचित् सान्तरमपि च्यवन्ति, कदाचित् निरन्तरमपि च्यवन्ति इत्येवमभिलापः कर्तव्यः इत्याशयः, 'दारं' इति तृतीयं द्वारम् समाप्तम् ।।१० ५॥ उदवर्तन करते हैं कभी निरन्तर भी उद्वर्तन करते हैं । इस प्रकार जैसो उत्पाद की प्ररूपणा की है, वैसी ही उद्वर्त्तना की भी प्ररूपणा करनी चाहिए, केवल सिद्धों को छोड देना चाहिए, क्योंकि सिद्धों की उद्वर्तना होती नहीं है, अर्थात् एकवार सिद्ध होने के पश्चात् कोई सिद्ध गति से लौटता नहीं है। तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि भवनपति, पृथिवीकायिक आदि पांच एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यच, मनुष्य, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, कल्पोपपन्न वैमानिक, नवग्रैवेयक तथा पांच अनुत्तर विमान, इन सब के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए, मगर विशेष यह है कि ज्योतिषकों और वैमानिकों के विषय में उद्वतना शब्द का प्रयोग न करके 'च्यवन' शब्द का प्रयोग करना चाहिए । इसका कारण पहले बतलाया जा चुका है ॥५॥ तृतीय द्वार समाप्त પણ ઉદ્વર્તન કરે છે, કઈ વાર નિરતર પણ ઉદ્વર્તન કરે છે. એ પ્રકારે જેવી ઉત્પાદની પ્રરૂપણા કરી છે. તેવી જઉદ્વર્તાનાની પણ પ્રરૂપણ કરવી જોઈએ, કેવળ સિદ્ધને છોડી દેવા જોઈએ, કેમકે સિદ્ધોની ઉદૃવતના થતી નથી. અર્થાત્ એક વાર સિદ્ધ થયા પછી કોઈ સિદ્ધગતિમાંથી પાછા ફરતે નથી. તાત્પર્ય એ છે કે અસુરકુમાર આદિ ભવનપતિ, પૃથ્વીકાયિક આદિ पांथ मेन्द्रिय, विन्द्रिय, ५येन्द्रिय, तिय"य, मनुष्य, पानव्यन्त न्योति, કપિપન્ન, વૈમાનિક, નવ રૈવેયક તથા પાંચ અનુત્તર વિમાન આ બધાના વિષયમાં પણ એ પ્રકારે કહેવું જોઈએ. પણ વિશેષ આ છે કે જ્યોતિષ્ક અને શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy