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प्रमेयबोधिनी टीका पद ६ सू.४ सान्तरनिरन्तरोपपातद्वारनिरूपणम् ९८३ तस्तथा उद्वर्तनापि सिद्धवर्जा भणितव्या, यावद् वैमानिकाः नवरं ज्योतिष्कवैमानिकेषु च्यवनमिति अभिलापः कर्तव्यः, द्वारम् ॥सू० ५॥ ____टीका-अथ नैरयिकादीनामुद्वर्तनां प्ररूपयितुमाह-'नेरइयाणं भंते ! किं संतरं उचट्टति, निरंतर उवटुंति ?' गौतमः पृच्छति-हे भदन्त ! नैरयिकाः खल किं सान्तरम्-किश्चित्कालव्यवधानेन, उद्वर्तन्ते, किंवा निरन्तरम्-निरवच्छिन्नम् किंचित्कालाव्यवधानेन सततमित्यर्थः उद्वर्तन्ते ? भगवान् आह-'गोयमा ! हे हे गौतम ! सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं, निरन्तर भी उवर्तन करते हैं (एवं) इस प्रकार (जहा) जैसा (उववाओ भणिओ) उत्पाद कहा (तहा) उसी प्रकार (उव्वदृणा वि) उद्वर्तना भी (सिद्धवज्जा) सिद्धों को छोडकर (भाणियव्वा) कहनी चाहिए (जाव वेमाणिया) वैमानिकों तक (नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणंति अहिलावो कायव्यो) विशेष यह कि ज्योतिष्क और वैमानिकों में 'च्यवन' ऐसा शब्द प्रयोग करना चाहिए द्वार'
टीकार्थ-अब नैरयिक आदि जीवों की उद्वर्तना की प्ररूपणा की जाती है
गौतम प्रश्न करते हैं-हे भगवन ! नारकजीव सान्तर उवर्तन करते हैं ? अर्थात् नरक से नारक जीवों के निकलने में बीच बीच में समय का व्यनधान होता है, या निरन्तर अर्थात् लगातार प्रत्येक समय निकलते ही रहते हैं ?
भगवान् उत्तर देते हैं-हे गौतम ! नारकजीव कभी सान्तर भी वतन ४२ छे. नि२-१२ ५९ वतन ४२ छ (एवं) मा रीते (जहा) २२॥ (उववाओ भणिओ) Sule ४ह्यो (तहा) से प्रारे (उच्वट्टणा वि) पनि ५y (सिद्ध वज्जा) (सद्ध सिवाय (भाणियव्वा) ४ी नये (जाव वेमाणिया) वैमानि सुधी (नवर जोइसिय वेमाणिएसु चयणंति अहिलावो कायब्बो) વિશેષ એ કે જોતિષ્ક અને વૈમાનિકે માં “ચ્યવન એ શબ્દ પ્રયોગ કરે જોઈએ છે ૨ |
ટીકાઈ–હવે નરયિક આદિ જેની ઉવનાની પ્રરૂપણ કરાય છે
શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રશ્ન કરે છે–હે ભગવન્! નારક જીવ સાન્તર ઉદ્વર્તન કરે છે અથવા નિરન્તર ઉદ્વર્તન કરે છે? અર્થાત્ નરકથી નારક જીવને નિકળવામાં વચમાં વચમાં સમયનું વ્યવધાન થાય છે, અગર નિરંનર અર્થાત્ સતત પ્રત્યેક સમય નિકળતા જ રહે છે?
શ્રી ભગવાન ઉત્તર આપે છે—હે ગૌતમ ! નારક જીવ કઈ વાર સાન્તર
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨