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________________ ९७४ प्रज्ञापनास्त्रे निरन्तरमपि उपपद्यन्ते । असुरकुमार देवाः खलु भदन्त ! किं सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते ? गौतम ! सान्तरमपि उपपद्यन्ते निरन्तमपि उपपद्यन्ते, एवं यावत् स्तनितकुमाराः खलु सान्तरमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते, पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! किं सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते ? गौतम ! नो सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते, एवं यावत्-वनस्पतिकायिकाः नो सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते, द्वीन्द्रियाः खलु भदन्त ! किं सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते? गौतम ! सान्तरमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि (असुरकुमारदेवा णं भते ! किं संतरं उववनंति, निरंतरं उघवज्जति ?) हे भगवन् ! असुरकुमार देव क्या सान्तर उत्पन्न होते है अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? (गोयमा! संतरंपि उववज्जति निरंतरंपि उववज्जंति) गौतम ! सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं (एवं जाव थणियकुमारा) इसी प्रकार स्तनित कुमारों तक (सतरंपि उववज्जति, निरंतरंपि उववज्जंति) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं (पुढविकाइया णं भंते ! किं संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जति ?) हे भगवन् पृथिवी कायिक क्या निरन्तर उत्पन्न होते हैं अथवा सान्तर उत्पन्न होते हैं ? (गोयमा ! नो संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववजंति हे गौतम ! सान्तर नहीं उत्पन्न होते, निरन्तर उत्पन्न हैं (एवं जाव वणस्सइकाइया) इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक (नो संतरं उववजंति निरंतरं उववज्जति सान्तर नहीं उत्पन्न होते हैं, निरन्तर उत्पन्न होते हैं (असुरकुमाराणं भंते ! किं संतरं उबवजंति, निरंतरं उववज्जति ?) 3 ભગવદ્ ! અસુરકુમાર દેવ શું સાન્તર ઉત્પન્ન થાય છે અથવા નિરંતર ઉત્પન્ન थाय छ ? (गोयमा ! संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जति) गौतम ! सान्त२ ५५ उत्पन्न थाय छ निरंत२ ५Y Sत्पन्न थाय छे (एवं जाव थणिय कुमारा) से प्रारे स्तनित सुमारे। सुधी (संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जति) सन्त२ ५५ उत्पन्न थाय छ, निरन्त२ ५५ उत्पन्न थाय छ (पुढविकाईयाणं भंते ! किं संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जति ?) ભગવન્! પૃથ્વીકાયિક શું સાન્તર ઉત્પન્ન થાય છે, નિરન્તર ઉત્પન્ન થાય છે ? (गोयमा ! नो संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जति) गौतम ! सान्तर पन्न नथी थत, निरन्तर उत्पन्न थाय छ (एवं जाव वणस्सई काइया) से रीते यावत् वनस्पतिशय (नो संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जंति) सान्त२ नथी ઉત્પન્ન થતા, નિરન્તર ઉત્પન્ન થાય છે. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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