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________________ ९७५ प्रमेयबोधिनी टीका पद ६ सु. ४ सान्तरनिरन्तरोपपातद्वारनिरूपणम् उपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपचन्ते, एवं यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः मनुष्याः खलु भदन्त ! किं सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते ? गौतम ! सान्तरमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते, एवं वानव्यन्तराज्योतिष्काः सौधर्मेशानसनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रार आनतप्राणतारणाच्युताधस्तनग्रैवेयकमध्यमग्रैवेय कोपरितनग्रैवेयक विजय वैजयन्तजयन्तापराजित सर्वार्थसिद्धदेवाश्वसान्त ( इंदिया णं भते ! किं संतरं उबवज्जंति, निरंतरं उववज्जति ?) भगवन् ! द्वीन्द्रिय क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? (गोयमा ! संतरंपि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जति) गौतम ! सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं (एवं जाय पंचि दियतिरिक्खजोणिया) इसी प्रकार पंचेन्द्रियतियैचयोनिक तक कहना ( मणुस्साणं भते ! किं संतरं उववज्र्ज्जति निरंतरं उववज्जंति) हे भगवन् ! मनुष्य क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? ( गोयमा ! संतरंपि उववज्र्ज्जति, निरंतरंपि उद्यवज्जंति) गौतम ! सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं ( एवं वाणमंतरा जोइसिया) इसी प्रकार वानव्यन्तर और ज्योतिष्क (सोहम्मीसाणसं कुमार माहिंद वंभलोग लंतग महासुक्क सहस्सार आणय पाणय आरण च्चुअ हिट्ठिमगेविज्जग मज्झिमगेविज्जग उवरिमगेविज्जग विजय वैजयंत जयंत अपराजित सम्बद्धसिद्धदेवाय) सौधर्म, ईशान सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक लान्तक, महाशुक्र सरखार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, अधस्तन ग्रैवेयक, मध्यम ( बेइंदियाणं भंते! किं संतरं उत्रवज्जंति, निरंतरं उववज्जंति ?) डे ભગવન્! દ્વીન્દ્રિય શું સાન્તર ઉત્પન્ન થાય છે અગર નિર ંતર ઉત્પન્ન થાય છે ? ( गोयमा ! संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जंति) हे गौतम ! सान्तर या उत्पन्न थाय छे, निरन्तर पशु उत्पन्न थाय छे ( एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया ) ०४ प्रारे यथेन्द्रिय तिर्यथ योनि सुधी अडेला छे ( मणुस्साणं भंते! किं संतरं उववज्जंति, निरन्तरं उववज्जंति ?) डे लगवन् ! भनुष्य शुं सान्तर उत्पन्न थाय छे } निरन्तर उत्पन्न थाय छे ? (गोयमा ! संतरं पि उववज्र्ज्जतिं, निरंतरं पि उववज्जंति) हे गौतम! सान्तर या उत्पन्न थाय छे भने निरन्तर पशु उत्पन्न थाय छे ( एवं वाणमंतरा जोइसिया ) ०४ रीते वानव्यन्तर मने ज्योतिष्ड (सोहम्मी - साण - सणकुमार - माहिंद- बंभलोय लंगत महासुक्क - सहस्सार - आणय - पाणय- आरण-च्चुअ - हिट्ठिमगेविज्जग - मज्झिम गेविज्जग - उवरिम गेविज्जग - विजय- वेजयंत- जयन्त - अपराजित - सव्वट्टसिद्ध देवाय ) सौधर्भ, ईशान, सनत्कुमार, महेन्द्र, ब्रह्मखेोङ, सान्त, भडाशुर्डे, सडुसार, શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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