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प्रमेयबोधिनी टीका पद ६ सु.४ सान्तरनिरन्तरोपपातद्वारनिरूपणम् ९७३ निरन्तरम् उपपद्यन्ते, गौतम ! सान्तरमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते, देवाः खलु भदन्त ! किं सान्तरमुपपद्यन्ते ? निरन्तरमुपपद्यन्ते, गौतम ! सान्तरमपि उपपद्यन्ते, निरन्तरमपि उपपद्यन्ते, रत्नप्रभापृथिवी नैरयिकाः खलु भदन्त ! किं सान्तरमुपपद्यन्ते, निरन्तरमुपपद्यन्ते ? गौतम ! सान्तरमपि उपपद्यन्ते निरन्तरमपि उपपद्यन्ते । एवं यावत् अधःसप्तम्यां सान्तरमपि उपपद्यन्ते, भंते ! किं संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जति ?) हे भगवन् ! मनुष्य क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? (देवा णं भते! किं संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जति ?) हे भगवन् ! क्या देव सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? (गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उबवज्जति) हे गौतम ! सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं।
(रयणप्पमापुढवि नेरइया णं भंते ! कि संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जति ? रत्नप्रभा पृथिवी के नारक क्या सान्तर उत्पन्न होते है या निरन्तर होते हैं ? (गोयमा ! संतरंपि उववज्जति निरतरंपि उववज्जति (गौतम ! सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं (एवं जाव अहे सत्तमाए) इसी प्रकार सातवीं नरकभूमि तक (संतरंपि उववज्जति निरंतरंपि उववज्जति) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं, निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं निरन्त२ ५५ उत्पन्न थाय छ ? (मणुस्साणं भंते ! किं संतरं उववजंति, निरंतरं उववज्जंति ?) के मगवन् ! मनुष्य शुसान्तर उत्पन्न थाय छ, अथवा निरन्तर उत्पन्न थाय छ ? (गोयमा ! संतरंपि उववजंति निरंतरंपि उववज्जति) गौतम ! सान्त२ ५५४ उत्पन्न थाय छ भने निरन्तर ५५ उत्पन्न थाय छे. (देवाणं भंते ! किं संतूरं उववज्जंति निरंतर उववज्जंति ?) હે ભગવન્! શું દેવ સાન્તર ઉત્પન્ન થાય છે અથવા નિરન્તર ઉત્પન્ન થાય છે? (गोयमा! संनरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जति) गौतम! सान्त२ ५५ ઉત્પન્ન થાય છે, નિરન્તર પણ ઉત્પન્ન થાય છે.
(रयणप्पभा पुढवि नेरइयाणं भंते ! कि संतरं उववज्जंति, निरंतरं उवव. जंति ?) मावन् ! २त्नमा पृथ्वीना ना२४ शुसान्त२ उत्पन्न थाय छ। निरन्तर उत्पन्न थाय छ ? (गोयमा ! संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उबवजंति) गौतम ! सान्त२ ५९] उत्पन्न थाय छ, निरन्तर पर उत्पन्न थाय छ (एवं जाव अहे सत्तमाए) से प्रारे सातमी ना२४भूमि सुधी (संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववज्जति) सान्त२ ५५५ ५न्न थाय छ, नित२ ५५ ઉત્પન્ન થાય છે
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨