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________________ ८४० प्रज्ञापनासूत्रे द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया षट्स्थानपतितः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या तुल्यः, वर्णादिभिः, अष्टस्पशैश्च षट्स्थानपतितः, एवमुत्कृष्टास्थितिकोतिकोऽपि, अजघन्यानुत्कृष्टस्थितिकोऽपि एवञ्चैव, नवरं स्थित्या चतु:स्थानपतितः। टीका-अथ जघन्याअवगाहनकानां द्विप्रदेशिकादिस्कन्धानां पर्यवान् प्ररूपयितुमाह-'जहण्णोणाहणगाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा ?' गौतमः पृच्छतिहे भगवन् ! किस कारण ऐसा कहा है कि जघन्य स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कंधों के अनन्त पर्याय हैं ? (गोयमा ! जहण्णठिहए अणंतपएसिए जहण्णठिइयस्स अणंतपएसियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले) हे गौतम ! जघन्य स्थिति वाला अनन्तप्रदेशी स्कंध जघन्य स्थिति याले अनन्तप्रदेशी स्कंध से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (पएसट्टयाप छट्ठाणवडिए) प्रदेशों की अपेक्षा षट्स्थानपतित (ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (ठिईए तुल्ले) स्थिति से तुल्य (वण्णाइअट्ठफासेहि य छट्ठाणवडिए) वर्णादि से तथा आठ स्पर्टी से षट्स्थानपतित होता है (एवं उक्कोसठिइए वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाला भी इसी प्रकार (नवरं ठिईए चउठाणवडिए) विशेषता यह कि स्थति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित होता है । टीकार्थ-अब द्विप्रदेशी आदि स्कंधों की जघन्य उत्कृष्ट मध्यम अवगाहना, स्थिति आदि के आधार पर उनके पर्यायों की प्ररूपणा की जाती हैपएसियाणं अगंता पज्जवा पण्णत्ता) भगवन् ! ॥ ४॥णे सयु प्रयु छ है જઘન્ય સ્થિતિવાળા અનન્ત પ્રદેશી સ્કન્ધના અનન્ત પર્યાય કર્યો છે? (गोयमा ! जहण्णठिइए अणंतपएसिए जहण्णठिइयस्स अणंतपएसियस्स दवढयाए तुल्ले) र गौतम ! धन्य स्थिति मन त प्रदेशी ४.३ धन्य स्थितिin मनन्त प्रदेशी २४न्यथी द्रव्यनी अपेक्षाये तुक्ष्य छ (पएसट्टयाए छटूठाणवडिए) प्रशानी अपेक्षाये घटस्थान पतित छ (ओगाहणट्रयाए चउद्राणवडिए) साईनाथी अपेक्षा यतुःस्थान पतित (ठिईए तुल्ले) स्थितिथी तुल्य (वण्णाइ अट्रफासेहिंय छोणवडिए) वाहिथी तथा पाठ २५ थी षट्स्थान पतित छ (एवं उक्कोसठिइए वि) से शत अष्ट स्थिति पy (अजहण्णमणुक्कोसठिइए वि एवं चेब) मध्यम स्थिति ५५ सेक घरे (नवरं ठिइए चउठाणवडिए) विशेष स्थितिथी अपेक्षा यतुःस्थान पतित थाय छे. ટકાથ–હવે ક્રિપ્રદેશી આદિ સ્કની જઘન્ય, ઉત્કૃષ્ટ મધ્યમ અવગાહના, સ્થિતિ આદિના આધાર પર તેમના પર્યાની પ્રરૂપણ કરાય છે શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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