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________________ ७४६ प्रज्ञापनासूत्रे स्थित्या चतुःस्थानपतितः, कृष्णवर्णपर्यवैस्तुल्यः, अवशेषैः वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः षट्स्थानपतितः, चतुभिर्ज्ञानैः षट्स्थानपतितः, केवलज्ञानपर्यवैस्तुल्यः, त्रिभिरज्ञानैः षट्स्थानपतितः केवलदर्शनपर्यवैस्तुल्यः, एवमुत्कृष्टगुणकालकोऽपि, अजधन्यानुत्कृष्टगुणकालकोsपि एवञ्चैव नवरं स्वस्थाने परस्थानपतितः, एवं पञ्चवर्णाः, द्वौ गन्धौ, पञ्चरसाः, अष्टौ स्पर्शाः भणितव्याः, जघन्याभिनिवोधिकाणवडिए) अवगाहना से चतुःस्थानपतित (ठिईए चउडाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित (कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले) कृष्ण वर्ण के पर्यायों से तुल्य ( अवसे सेहिं वण्णगंधर सफासेहिं छाणवडिए) शेष वर्ण गंध, रस और स्पर्श से षट्स्थानपतित (चउहिं नाणेहिं छट्टाणवडिए) चार ज्ञानों से षट्स्थानपतित (केवलनाणपज्जवेहिं तुल्ले) केवल ज्ञान के पर्यायों से तुल्य ( तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्टाणवडिए) तीन अज्ञानों से तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित (केवल दंसणपज्जवेर्हि तुल्ले) केवलदर्शन के पर्यायों से तुल्य ( एवं उक्कोसगुणकालए वि) इसी प्रकार उत्कृष्टगुण कृष्ण भी (अजहण्णमणुक्को सगुणकालए वि एवं चेव) मध्यमगुण कृष्ण भी इसी प्रकार (नवर सट्ठाणे छट्ठाणवडिए) विशेषता यह कि स्वस्थान में भी षट्स्थानपतित है ( एव पंचवण्णा) पांचों वर्ण (दो गंधा) दोनो गंध (पंच रसा) पांचों रस (अट्ठफासा) आठ स्पर्श (भाणियव्वा) कहने चाहिए (जहण्णाभिणिबोहियनाणीणं मणुस्साणं केवइया पज्जवा प( पसट्टयाए तुल्ले) अशोथी तुझ्य (ओगाहट्टयांए चउट्ठाणवडिए) भवगाडुनाथी यतुःस्थान पतित (ठिईए चउठ्ठाणवडिए) स्थितिथी अतुस्थान पतित (कालवण्णपज्जहिं तुल्ले ) धृष्णु वर्षाना पर्यायोथी तुझ्य ( अवसेसेहिं वण्णगंधरस फासेहि छट्ठाणवडिए) शेष वर्षा गंध रस भने स्पर्श थी षट्स्थान पतित ( चउहिं नाणेहि छट्ठाणवडिए) यार ज्ञानाथी षटस्थान पतित छे (केवलनाणपज्जवेहिं तुल्ले) ठेवणજ્ઞાનના પર્યાયાથી तु (तिहिं अन्नाणेहिं तिहिं दंसणेहि छट्ठाणवडिए) अज्ञानी, मने ऋणु दर्शनाथी षटस्थान पतित छे (केबलदंसणपज्जवेहिं तुल्ले) કેવળ દર્શનના પર્યાયેાથી તુલ્ય ( एवं उक्कोसगुणकालए वि) ०४ प्रहारे उत्ष्ट गुण कृष्ण याशु (अजहणमणुको सगुणकालए वि एवं चेव) ये रीते मध्यम गुण Łष्णु पशु (नवर सट्टाणे छट्टाणवडिए) विशेषता मे है स्वस्थानमा पशु षटस्थान पतित छे ( एवं पंच वन्ना ) यांये पशु (दो गंधा) भन्ने गधा (पंचरसा) यांचे रसो (अट्ठफासा) आहे स्पर्श (भाणियब्बा) अहेवा लेहये. " શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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