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प्रमेयबोधिनी टीका पद ५ सू.०११ मनुष्यपर्यायनिरूपणम्
७४७ ज्ञानिनां मनुष्याणाम् कियन्तः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञप्ताः, तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-जघन्याभिनिबोधिकज्ञानिनां मनुष्याणामनन्ताः पर्यवाः प्रज्ञाप्ताः ? गौतम ! जघन्याभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यो जघन्याभिनिबोधिकज्ञानिनो मनुष्यस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या चतु:स्थानपतितः वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः षट्स्थानपतितः, आभिनिवोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यः, श्रुतज्ञानपर्यवैः द्वाभ्यां ण्णत्ता ?) जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यो के कितने पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ? अगंता पज्जवा पण्णत्ता) हे गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं(से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जहण्णाभिणिबोहिनाणीणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ?) किसकारण से हे भगवन् ! ऐसा कहा जाता है कि जघन्य आभिनियोधिकज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? (गोयमा ! जहण्णाभिणियोहियनाणी मणूसे) हे गौतम ! जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य (जहण्णाभिणिबोहिय णाणिस्स मणुस्सस्स
वट्टयाए तुल्ले) जघन्य आभिनिवोधिक ज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों की दृष्टि से तुल्य है (ओगाहणट्टयाए चउहाणवडिए) अवगाहना से चतुःस्थानपतित (ठिईए चउहाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित (वण्णगंधरसफास पज्जवेहिं छट्ठाणवडिए) वर्ण, गंध, रस स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित (आभिणिबोहिय नाणपज्जवेहिं तुल्ले) आभिनिबोधिक
(जहण्णाभिणिबोहियनाणीणं मणुस्साणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ?) धन्य मालिनिमाधिज्ञानी मनुष्योनाटा पर्याय ४ा छ (गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता) गौतम ! मनन्त पर्याय ४छे (से केणदेणं भंते ! एवं वुच्चई जहण्णाभिणिवोहियनाणीणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता !) मावन् २॥ કારણે એવું કહ્યું છે કે જઘન્ય આભિનિબોધિક જ્ઞાની મનુષ્યના અનન્ત पर्याय ४४॥ छे ? (गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियनाणी मणूसे) 3 गौतम ! धन्यामिनिमाधिज्ञानी मनुष्य (जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स मणुस्सस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले)
धन्य मानिनिमाधि ज्ञानी मनुष्यथी द्रव्यनी टिके तुल्य छ (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रशानी ट तुल्य छ (ओगाहणद्वयाए चउट्ठाणवडिए) Aq8नाया यतुःस्थान पतित (ठिईए चट्टाणवडिए) स्थितिथी यतुस्थान पतित (वण्णगंधरसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिए) १ ५ २२५. मने २५श ना पर्यायाथी पटस्थान पतित (आभिणिबोहियनाणपज्जवेहि तुल्ले) मालिनिनोविज्ञानना पर्यायाथी तुझ्य (सुयनाणपज्जवे हि) श्रुतज्ञानना पर्यायाथी (दोहिं दसणेहि) मे शनायी (छट्ठाणवडिए)
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨