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________________ प्रज्ञापनासूत्रे मनुष्यः जघन्यस्थितिकस्य मनुष्यस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः अवगाहनार्थ तया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या तुल्यः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवै: द्वाभ्यामज्ञानाभ्यां द्वाभ्यां दर्शनाभ्यां षट्स्थानपतितः, एवम् उत्कृष्ट स्थितिकोऽपि, नवरं द्वे ज्ञाने, द्वे अज्ञाने, द्वे दर्शने, अजघन्यानुत्कृष्टस्थितिकोऽपि एवञ्चैव, नवरं स्थित्या चतुः स्थानपतितः, अवगाहनार्थतया चतुः स्थानपतितः आदिस्साणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ? ) हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया है कि जघन्य स्थितिक मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ? (गोयमा !) हे गौतम! ( जहण्णठिइए मणुस्से) जघन्य स्थिति वाला मनुष्य (जहणणठिइयस्स मणुस्सस्स) जघन्य स्थिति वाले मनुष्य से (दव्याए तुल्ले) द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (पएसयाए तुल्ले) प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है (ओगाहणट्टयाए) अवगाहना से (चाणवढिए) चतुःस्थानपतित है (ठिईए तुल्ले) स्थिति से तुल्य है (वण्णगंधर सफासपज्जवेहिं) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के पर्यायों से (दोहिं अनाणेहिं) दो अज्ञानों से (दोहिं दंसणेहिं) दो दर्शनों से (छट्टाणवडिए) स्थागपतित है ( एवं उक्कोसटिइए वि) इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाला भी (नवरं ) विशेष (दो नाणा) दो ज्ञान (दो अन्नाणा) दो अज्ञान (दो दंसणा ) दो दर्शन कहना चाहिए ७४४ (अजहण्णमणुक्कोठिए वि एवं चेव) मध्यमस्थितिक भी इसी प्रकार (नवरं) विशेष (टिइए चउट्टाणवडिए) स्थिति से चतुःस्थानपतित (ओगाहण्याए चउट्ठाणवडिए) अवगाहना से चतुःस्थान ठिझ्याणं मणुस्साणं अनंता पज्जवा पण्णत्ता ?) हे भगवन् शा आगे मेवु भधन्य स्थिति भनुष्योना अनन्त पर्याय ह्या छे ? ( गोयमा !) हे गौतम! (जहण्ण ठिईए मगुस्से) ४धन्य स्थितिवाणा मनुष्य (जहण्णटिईयस्स मणुस्सरस) धन्य स्थितिवाणा मनुष्याथी ( दव्वट्टयाए तुल्ले) द्रव्यनी अपेक्षा तुझ्या छे ( पट्टयाए तुल्ले) प्रदेशोनी अपेक्षा तुझ्या छे (ओगाहणट्टयाए) अवगाहनाथी (चउट्ठाणवडिए) यतुःस्थान पतित छे (ठिईए तुल्ले) स्थितिथी तुझ्य छे (वण्ण गंध रस फास पज्जवेहिं) वर्षा गंध रस स्पर्शना पर्यायाथी (दोहिं अन्नाणेहिं) थे अज्ञानाथी (दोहिं दंसणे हि ) मे हर्शनाथी (छट्टाणवडिए) पटस्थान पतित छे ( एवं उकोसठिइए वि) खेल अरे उत्कृष्ट स्थितिवाणा पशु (नवर) विशेष (दो नाणा) ये ज्ञान (दो अन्नाणा ) मे अज्ञान (दो दंसणा ) मे हर्शन अहेवालेो ( अजहणमणुक्तोस ठिईए वि एवं चेव) मध्यम स्थिति वाजा पशु सेन शेते समन्वा (नवर) विशेष (ठिईए चउट्टाणवडिए) स्थितिथी यतुःस्थान पतित શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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