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________________ प्रज्ञापनासूत्रे पृथिवीकायिकः, उत्कृष्टस्थितिकस्य पृथिवीकायिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यो भवति, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितो भवति, स्थित्या तुल्यो भवति, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः मत्यज्ञानपर्यवः, श्रुताज्ञानपर्यवैः, अचक्षुर्दर्शनपर्यवैः पर स्थानपतितो भवति, 'अजहष्णमणुक्कोसठिइए वि एवं चेव' अजघन्यानुत्कृष्टस्थितिकोऽपि पृथिवीकायिकः एवं चैत्र-पूर्वोक्तरीत्या अजघन्यानुत्कृष्टस्थितिकस्य पृथिवीकायिकान्तरस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितो भवति, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः मत्यज्ञानपर्यवैः श्रुताज्ञानपर्यवैः, अचक्षुर्दर्शनपर्यवैश्च षट्स्थानपतितो भवति, किन्तु - 'नवरं सहाणे तिद्वाणवडिए' नवरं पूर्वापेक्षया विशेषस्तु स्वस्थाने - स्वभवे स्वभवापेक्षयेत्यर्थः त्रिस्थानपतितो भवति न तु चतुःस्थान पतितः तेषामसंख्येयवर्षायुष्काभावात्, द्रव्य से तुल्य है, प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित होता है, स्थिति की अपेक्षा तुल्य है, वर्ण गंध रस और स्पर्श के पर्यायों से, मत्यज्ञान श्रुताज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों से षट्स्थान पतित होता है । ६८० मध्यम स्थिति वाला पृथ्वीकायिक भी इसी प्रकार है । अर्थात् वह दूसरे मध्यम स्थिति वाले पृथ्वीकायिक की अपेक्षा द्रव्य और प्रदेशों से तुल्य है, अवगाहना से चतुःस्थानपतित, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मत्यज्ञान श्रुताज्ञान तथा अचक्षुदर्शन के पर्यायों से षट्स्थनपतित है, मगर विशेषता इतनी ही है कि मध्यम स्थिति वाला स्वस्थान में भी त्रिस्थानपतित होता है अर्थात् एक मध्यम स्थिति वाला पृथ्वीकायिक दूसरे मध्यम स्थिति वाले पृथ्वीकाधिक से स्थिति की दृष्टि से असंख्यात भाग हीन संख्यातभाग हीन या પ્રદેશાથી તુલ્ય છે, અવગાહનાથી ચતુઃસ્થાન પતિત થાય છે, સ્થિતિની અપે क्षाखे तुझ्य छे, वर्षा, गंध, रस, मने स्पर्शना पर्यायाथी, भत्यज्ञान, अने શ્રુતાજ્ઞાન અને અચક્ષુદનના પર્યંચાથી ષટસ્થાન પતિત થાય છે. મધ્યમ સ્થિતિવાળા પૃથ્વીકાયિક પણ એજ પ્રકારના છે. અર્થાત્ તે ખીજા મધ્યમ સ્થિતિવાળા પૃથ્વીકાયિકની અપેક્ષાએ દ્રવ્ય અને પ્રદેશેાથી તુલ્ય છે, अवगाडुनाथी यतुःस्थान पतित वर्षा, गंध, रस, स्पर्श, भत्यज्ञान, श्रुताज्ञान તથા અચક્ષુદનના પર્યાયથી ષડ્થાન પતિત છે, પણ વિશેષતા એટલીજ છે કે મધ્યમ સ્થિતિવાળા સ્વસ્થાનમાં પણ ત્રિસ્થાન પતિત થાય છે અર્થાત્ એક મધ્યમ સ્થિતિવાળા પૃથ્વીફાયિક ખીજા મધ્યમ સ્થિતિવાળા પૃથ્વીકાયિકથી શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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