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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद ५ सू. ६ नैरयिकाणां पर्यायनिरूपणम् , " वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः पदस्थानपतितो भवति, 'आभिणिबोहियनाणपज्जवेहिं तुल्ले' आभिनिवोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यो भवति, 'सुयनाणपज्जवेर्हि, ओहिनाणपज्जवेहिं छाणवडिए श्रुतज्ञानपर्यवैः अवधिज्ञानपर्यवैश्च षट्स्थानपतितो भवति, 'तिहिं दंसणेहि छद्वाणवडिए' त्रिभिर्दर्शनै:- चक्षुरचक्षुरखधिलक्षण दर्शनपयत्रः षट्स्थानपतितो भवति, एवं उक्कोसाभिणिबोहिय नाणीवि' एवम् पूर्वोक्तरीत्या, उत्कृष्टाभिनिबोधिकज्ञानी अपि नैरयिकः उत्कृष्टाभिनिवोधिकज्ञानिनो नैरथि - कस्य द्रव्यार्थतया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुः स्थानपतितः स्थित्या चतुःस्थानपतितः, वर्णगन्धरसस्पर्शपर्यवैः षट्स्थानपतितः, आभिनिवोधिकज्ञानपर्यवैस्तुल्यः श्रुतज्ञानपर्यवैः, अवधिज्ञानपर्यवैः षट्स्थानपतितः, त्रिभिर्दर्शनैः पदस्थानपतितो भवति, 'अजहण्णमणुकोसाभिणिवोहियणाणीव एवं वेव' अजघन्यानुत्कृष्टाभिनिबोधिकज्ञानि अपि नैरयिकः एव चैव पूर्वोक्त वदेव अजघन्यानुत्कृष्टाभिनिबोधिकज्ञानिनो नैरयिकस्य द्रव्यार्थ - तया तुल्यः, प्रदेशार्थतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुः स्थानपतितः स्थित्या चतुः स्थानपतितः वर्णगन्धरसस्पर्श पर्यवैः षट्स्थानपतितः, श्रुतज्ञानपर्यवैः, अवधिज्ञानपर्यवैः षट्स्थानपतितः, त्रिभिर्दर्शनैः षट्स्थानपतितो भवतीति भावः, किन्तु 'रं आभिणिवोहियनागपज्जवेहिं सहाणे छडाणवडिए' नवरं पूर्वापेक्षया है, वर्ण गंध रस और स्पर्श से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों से तुल्य है, श्रुतज्ञाज्ञान और और अवधिकज्ञान के पर्याय से षट्स्थनपतित है, तीन दर्शनों की अपेक्षा षट्स्थानपतित है । " अजघन्य - अनुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए । अर्थात् एक मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी दूसरे मध्यम आभिनियोधिक ज्ञानी से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, प्रदेशों की दृष्टि से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित होता है, स्थिति की दृष्टि से भी चतुःस्थानपतित होता है, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों से षट्स्थानपतित होता है, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान के पर्यायों से षट्स्थानपतित होता है, तीन दर्शनों के पर्यायों से भी षट्स्थानपतित होता है। विशेष यह है कि आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की दृष्टि से स्वस्थान में भी षट्स्थाસ્પના પર્યાયેાથી પર્યંચથી છ સ્થાન પતિત થાય છે, સ્વસ્થાનમાં પણ પણ ચતુઃસ્થાન પતિત થાય છે, વણુ, ગંધ, રસ અને ષટસ્થાન પતિત થાય છે. શ્રુતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાનના પતિત થાય છે, ત્રણ દનાના પર્યાયેથી પણ છ સ્થાન વિશેષ એ છે કે આભિનિખાધિકજ્ઞાનના પર્યાયાની દષ્ટિએ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨ ६५३
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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