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________________ प्रज्ञापनासूत्रै प्रदेशार्यतया तुल्यः, अवगाहनार्थतया चतुःस्थानपतितः, स्थित्या चतुःस्थान पतितो वर्णगन्धरसस्पर्शाभिनिबोधिकज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञान मनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानपर्यवैस्तुल्यस्त्रिभिदर्शनैः षट्स्थानपतितः, केवलदर्शनपर्यवैस्तुल्यः, वानव्यन्तरा अवगाहनार्थतया स्थित्या चतु:स्थानपतितः, वर्णादिभिः षट्स्थानपतिताः, ज्योतिष्काः वैमानिका अपि एवञ्चैव, नवरं स्थित्या त्रिस्थानपतिताः।। गौतम ! (मणूसे मणूसस्स बट्टयाए तुल्ले) मनुष्य मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है (पएसट्टयाए तुल्ले) प्रदेशों से तुल्य है (ओगा. हणट्टयाए चउट्ठाणवडिए) अवगाहना से चतुःस्थानपतित है। (ठिईए चउहाणवडिए-स्थिति से चतुःस्थानपतित है। (वण्ण-गंध-रस-फासआभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाण-मणपज्जवनाण-पज्जवेहि (छटाणवडिए) वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान के पर्यायों से षट्स्थानपतित है (केवल. णाणपज्जवेहि तुल्ले) केवलज्ञान के पर्यायों से तुल्य है (तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए) तीन अज्ञान तीन दर्शनों से षट्स्थानपतित है (केवलदसण पज्जवेहिं तुल्ले) केवलदर्शन के पर्यायों से तुल्य है। (वाणमंतरा ओगाहणट्टयाए ठिईए चउट्ठाणवडिया) वानव्यन्तर देव अवगाहना और स्थिति से चतुःस्थानपतित हैं (वण्णाइहिं छट्ठाणवडिया) वर्ण आदि के पर्यायों से षट्स्थानपतित हैं (जोइसिया वेमाणिया वि एवं चेव) ज्योतिष्क, वैमानिक भी इसी प्रकार (नवरं गौतम ! (मणूसे मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले) मनुष्य मनुष्यथा द्रव्यानी अपेक्षाये तुल्य छ (पएसयाए तुल्ले) प्रशाथी तुक्ष्य छे, (ओगाहणट्टयाए चउढाणवडिए) अपगाडनाथी यतुःस्थान पतित छ (ठिइए चउट्ठाणवडिए) स्थितिथी यतुःस्थान पतित छ (वण्णगंधरसफास आभिणिबोहियनाण सुयणाण ओहिनाण मणपज्जवनाणपज्ज. बेहिं छट्टाणवडिए) व मध २४, २५, मालिनिमाधिज्ञान श्रुतज्ञान, विज्ञान, मनः५ ज्ञानना पर्यायाथी पट्थान पतित छ (केवलणाणपज्जवेडिं तल्ले) वणज्ञानना पर्यायाथी तुल्य छ (तिहिं अण्णाणेहिं छट्ठाणवडिए) नए सज्ञान अy | नयी षट्स्थान पतित छे (केवलदसणपज्जवेहिं तुल्ले) १७. शनना પર્યાથી તુલ્ય છે (वाणमंतरा ओगाणट्टयाए ठिईए चउट्ठाणबडिया) पानव्यन्त२ हेव माना भने स्थितिथी यतु:स्थान पतित छे (वण्णाइहिं छटाणवडिया) १ महिना पर्यायाथी छ स्थान पतित छ (जोइसिया वेमाणिया वि एवं चेव) न्याति, मन वैमानि ५ २ ५४ारे (नवरं ठिईए तिढाणवडिया) विशेषता छ । શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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