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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद सू. ५ पृथ्वी कायिकादीनां पर्यायनिरूपणम् हे गौतम ! ' पुढविकाइए पुढविकाइयस्स द वट्टयाए तुल्ले' पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकस्य द्रव्यार्थतया तुल्यो भवति 'परसट्टयाए तुल्ले' प्रदेशार्थतया तुल्यो भवति, 'ओगाहट्टयाए सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अमहिए' अवगाहनार्थतया शरीरोच्छ्रयरूपतया, पृथिवीकायिकः पृथिवीकायिकान्तरापेक्षया स्यादीनः स्यात् तुल्यः स्यादभ्यधिको भवति, अथ तस्य चतुः स्थानपतित्वं प्रतिपादयति- ' जइ हीणे असंखिज्जइभागहीणे वा' तत्र यदा पृथिवीकायिको हीनो विवक्षितस्तदा असंख्येय भागहीनो वा, 'संखिज्जइभागहीणे वा' संख्येयभाग हीनो वा, 'संखिज्जइगुणहीणे वा' संख्येयगुण हीनो वा, 'असंखिज्जइगुणहीणे वा' असंख्येयगुण हीनो वा भवति, 'अह अमहिए असंखिज्जइभाग अभ्भहिए वा' अथ पृथिवीकायिकः अभ्यधिको यदा विवक्षितस्तदा असंख्येयभागाभ्यधिको वा, 'संखिज्जइ भागमन्भहिए वा' संख्येय भागाभ्यधिको वा भवति, 'संखिज्जगुण अभहिए वा' संख्येयगुणाभ्यधिको वा भवति 'असंखिज्जइगुण अन्भहिए वा' असंख्येयगुणाभ्यधिको वा भवति इत्येवं चतुःस्थानपतितत्वं से ऐसा कहा जाता है कि पृथिवीकायिकों के अनन्त पर्याय हैं ? भगवान् इस प्रश्न का उत्तर देते हैं - हे गौतम ! एक पृथिवीकायिक दुसरे पृथिवीकायिक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है और प्रदेश की दृष्टि से भी तुल्य है, मगर अवगाहना की दृष्टि से कोई किसी से हीन, कोई किसी से तुल्य और कोई किसी से अधिक है । अगर हीन है तो असंख्यात भाग हीन या संख्यात भाग हीन या संख्यातगुणा हीन अथवा असंख्यातगुणा हीन है । और यदि अधिक है तो कोई किसी से असंख्यातभाग अधिक है, कोई किसी से संख्यातभाग अधिक है, कोई किसी से संख्यातगुणा अधिक है और कोई किसी से असंख्यातगुणा अधिक है । इस प्रकार अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित होनाधिकता है । यद्यपि पृथिवीकाधिक ५८९ શ્રી ભગવાન્ આ પ્રશ્નના ઉત્તર આપે છે-હે ગૌતમ ! એક પૃથ્વીકાયિક ખીજા પૃથ્વીકાયિકથી દ્રવ્યની દૃષ્ટિએ તુલ્ય છે અને પ્રદેશેાની દૃષ્ટિએ પણ તુલ્ય છે પણ અવગાહનાની દૃષ્ટિએ કાઇ કેઇનાથી અધિક કે કઇ કઇનાથી તુલ્ય છે, અગર હીન છે તેા અસ`ખ્યાત ભાગહીન અગર સંખ્યાત ભાગ હીન યા સંખ્યાત ગુણહીન અથવા અસંખ્યાતગુણુ હીન છે. અને જો અધિક છે તે કાઇ કાઇનાથી અસખ્યાત ભાગ અધિક છે, કાઇ કેઇનાથી સખ્યાત ભાગ અધિક છે, કાઇ કોઇનાથી સ ́ખ્યાતગુણ અધિક છે અને કેઇ કેાઇનાથી અસંખ્યાતગુણુ અધિક છે. એ પ્રકારે અવગાહનાની દૃષ્ટિએ ચતુઃસ્થાન પતિત શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર :૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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