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प्रमेयबोधिनी टीका पद ४ सू.०२ देवदेवीनां स्थितिनिरूपणम् ४५५ जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टेन अर्धपञ्चमानि पल्योपमानि, अपर्याप्तकभवनवासिनीनां देवीनां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येनापि अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कृष्टेनापि अन्तर्मुहूर्तम्, पर्याप्तिकानां भदन्त ! भवनवासिनीनां देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन दशवर्षसहस्राणि अन्तर्मुहूतानानि, उत्कृष्टेन अर्धपञ्चमानि पल्योपमानि अन्तर्मुहतोंनानि, असुरकुमाराणां भंते ! देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! (गोयमा ! जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिओवमाई) हे गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट साढे चार पल्योपम (अपजत्तय भवणवासिणीणं देवीणं भते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) भगवन् ! अपर्याप्त भवनवासिनी देवियों की स्थिति कितने काल तक कही है ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जहण्णेण वि अंतोमुहुत्त, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त (पज्जत्तियाण भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?) भगवन् ! पर्याप्त भवनवासिनी देवियों की कितने काल तक स्थिति कही है ? (गोयमा ! जहण्णेणं दसवास सहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई', उक्कोसेणं अद्ध पंचमाई पलिओवमाई) हे गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त कम साढे चार पल्योपम की।
(असुरकुमाराणं भते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) हे भगवन् ! असुरकुमार देवों की कितने काल की स्थिति कही है ? ण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं अद्ध पंचमाई पलिओवमाई) 3 गौतम !
धन्य ४ २ मने उत्कृष्ट सा! या२ ५८यो५५ (अपज्जत्तय भवण वासिणीणं देवीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) भगवन् ! अर्यात - नवासीनी वियानी स्थिति ॥ समय सुधी ४डी छे ? (गोयमा !) 3 गौतम (जहण्णेणं वि अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्त) धन्य ५ मन्तभुत मने. कृष्ट ५ मन्तभुत (पज्जत्तियाणे भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ?) मावन् ! पर्याप्त नवनवासिनी वियोनी टा ४ सुधी स्थिति ४डी छे (गोयमा !) गौतम (जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतो मुहुत्तणाई उक्कोसेणं अद्ध पंचमाइं पलिओबमाई) धन्य मन्तभुत ઓછા દસ હજારવર્ષની અને ઉત્કૃષ્ટ અતિમુહૂત ઓછા સાડા ચાર પલ્યોપમની.
(असुरकुमाराणं भंते ! देवाण केवइयं कालं ठिई पण्णता ?) भगवन् ! मसु२४मा२ देवानी ॥ १॥ सुधी स्थिति ही छ ? (गोयमा! जहण्णेण दस
શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨