SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१४ प्रज्ञापनासूत्रे धिकाः ९६, संसारस्था विशेषाधिकाः ९७, सर्वजीवाः विशेषाधिकाः ९८, प्रज्ञापनायां भगवत्यां बहुवक्तव्यपदं समाप्तम्, तृतीयं पदं सामाप्तम् ॥सू०४०॥ टीका-अथ महादण्डकं व्याख्यातुकामो गौतमो गुरुमापृच्छते-'अह भंते ! सव्वजीवप्पबहुं महादण्डयं वण्णइस्सामि' हे भदन्त ! अथ सर्वजीवाल्पबहुत्वं यस्मिन् तत् तथाविधं महादण्डकं वर्णयिष्यामि-व्याख्यास्यामि एतेन गुर्वनुज्ञयैव शिष्य किमपि विवक्षतीति सिद्धम् अथ प्रतिज्ञातमाह-सव्वत्थोवा गम्भवकंतिया मणुस्सा ?' सर्वस्तोकाः-सर्वेभ्योऽल्पाः, गर्भव्युत्क्रान्तिका:-गर्भाद्व्युत्क्रान्तिः निष्क्रान्तिः उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, मनुष्या भवन्ति, तेषां संख्येयकोटि-कोटि प्रमाणत्वात् १, तेभ्योऽपि 'मणुस्सीओ संखिज्जविसेसाहिया) सयोगी विशेषाधिक (संसारत्था विसेसाहिया) संसारी जीव विशेषाधिक (सव्वजीवा विसेसाहिया) सर्व जीव विशेषाधिक । प्रज्ञापना भगवती का वहुवक्तव्यता पद समाप्त तृतीय पद समाप्त टीकार्थ-महादंडक का व्याख्यान करने के इच्छुक गौतम स्वामी गुरु से अनुमति लेते हैं कि-प्रभो! समस्त जीवों का अल्पबहुत जिसमें प्रतिपादित किया गया है, उस महादण्डक का व्याख्यान करूंगा। इससे फलित होता है कि शिष्य को गुरु की अनुज्ञा लेकर ही व्याख्यान करना चाहिए। अब महादण्डक प्रारंभ किया जाता हैं गर्भज अर्थात् गर्भ जन्म से उत्पन्न होने वाले मनुष्य सब से कम हैं, क्यों कि उनकी संख्या संख्यात कोडाकोडी परिमित ही है (१) मनुष्यस्त्रियां उनकी अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि वे साहिया) सपाय ७१ विशेषाधि४ छ. (छउमत्था विसेसाहिया) छद्भस्थ विशेपाधि छ. (सजोगी विसेसाहिया) सयामा विशेषाधि छे. (संसारत्था विसेसाहिया) ससारी ०१ विशेषाधि छे. (सव्वजीवा विसेसाहियास १ विशेषाधि४ छ. પ્રજ્ઞાપના ભગવતીનું અ૫ બહત્વ વક્તવ્યતા પદ સમાપ્ત તૃતીય પદ સમાપ્ત ટીકાર્થ–મહાદંડકનું વ્યાખ્યાન કરવાને ઇચ્છુક ગૌતમસ્વામી ગુરૂની અનુમતિ લે છે કે પ્રત્યે ! સમસ્ત જીવેના અ૫ બહુત જેમાં પ્રતિપાદિત કરેલાં છે, તે મહાદંડકનું વ્યાખ્યાન કરીશ. તેનાથી ફલિત થાય છે કે શિષ્ય ગુરૂની આજ્ઞા લઈને જ વ્યાખ્યાન કરવું જોઈએ હવે મહાદંડક પ્રારંભ કરાય છે. (૧) ગર્ભજ અર્થાત્ ગર્ભજન્મથી ઉત્પન્ન થનારા મનુષ્ય બધાથી ઓછા છે, કેમકે તેમની સંખ્યા સંખ્યાત કેડા કેડી પરિમિત જ છે ૧, મનુષ્ય સ્ત્રીઓ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy