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________________ प्रज्ञापनासूत्रे क्रमायुष्कास्ते खलु स्यात् त्रिभागे पारभविकायुष्यं प्रकुर्वन्ति, स्यात् त्रिभागत्रि. भागे पारभविकायुष्कं प्रकुर्वन्ति, स्यात् त्रिभागत्रिभागत्रिमागावशेषायुष्काः पारभविकायुष्यं प्रकुर्वन्ति एवं मनुष्या अपि, वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा नैरयिकाः, द्वारम् ॥ सू० १५॥ टीका-पूर्व येषां जीवानां नरकादि गतिषु नानाप्रकारकउत्पादः प्ररूपितस्तै जीवैः पूर्वभवे एव वर्तमानैरायुर्वन्धः कृतस्तदनन्तरं परभवे तेषामुपपातो भवति, अन्यथा उपपातासंभवात् , तत्र पूर्वभवायुषि कियद् भागावशिष्टे सति (तिभागावसेसाउया) आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर (परभदियाउयं पकरें ति) पर भव की आयु बांधते हैं । (तत्थ णं जे ते सोव. क्कमाउया) उनमें जो सोपक्रम आयु वाले हैं । (ते णं सिय ति भागे परभवियाउयं पकाति) वे कदाचित् तीसरे भाग में आयु बांधते हैं। (सिय तिभाग तिभागे परमवियाउयं पकरें ति) कदाचित् तीसरे भाग के तीसरे भाग में परभव की आयु बांधते हैं । (सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति) कदाचित् तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। (एवं मणूसा वि) इसी प्रकार मनुष्य भी। (वाणमंतर जोइसियवे. माणिया जहा नेरइया) वाणब्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक नारकों के समान । द्वार समाप्त ॥ सू० १५ ॥ टीकार्थ-जिन जीवों का नरक आदि गतियों में नाना प्रकार का उपपात बतलाया गया है, वे जीव जव पूर्वभव में विद्यमान थे तभी अगले भव की आयु का बंध कर चुके थे। तत्पश्चात् ही आगामी भव (तिभागावसेसाउया) सायुती श्री. मा शेष २उता (परभवियाउयं पकरें ति) ५२सपनु आयुष्य मांधे छ (तत्थ णं जे ते सोवकमाउया) तमामा २ सोपम मायुवामा छ (ते णं सिय तिभागे परभवियाउयं पकरें ति) ४ाथित् त्री मां ५२मवर्नु मायु मांधे छ (सिय तिभागतिभागे परभवियाउयं पकरें ति) हायित् nिot लाना oिn मामा ५२१नु मायु मधे छे. (सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया ष भवियाउयं पकरेंति) स्थित श्री मान त्रीत मागनी त्री मा शेष २उता ५२मनु मायु मा छे (एवं मणुसा वि) मे० प्रारे भनुध्यो ५ (वाणमंतरजोईसियवेमाणिया जहा नेरइया) वानव्यन्त२, ज्योति અને વૈમાનિક નારકના સમાન સમજવા. દ્વાર સમાપ્ત. ટીકાથ-જે જીવના નરક આદિ ગતિમાં નાના પ્રકારના ઉપપાત બતાવ્યા છે, તે છે જ્યારે પૂર્વભવમાં વિદ્યમાન હતા ત્યારે આગલા ભવના શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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