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________________ २०७४ प्रज्ञापनासूत्रे कायिकवदेव तेजाकाथिकाः, वायुकायिका अपि वक्तव्याः, किन्तु 'नवरं देववज्जेहिंतो उववज्जति' नवरम्-पूर्वोक्तपृथिवीकायिकापेक्षया विशेषस्तु-तेज:कायिका वायुकायिका देववर्जेभ्यः सर्वेभ्य उपपद्यन्ते, इत्यवसेयः 'वणस्सइकाइया जहा पुढविकाइया' वनस्पतिकायिका यथा पृथिवीकायिका भणितास्तथा भणितव्याः 'बेइंदियातेइंदियाचउरिंदिया एते जहा तेउवाऊदेवबज्जेहिंतो भाणियव्वा' द्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रिया एते यथा तेजःकायिकवायुकायिकदेववर्जेभ्य उपपद्यन्ते इत्येवं भणितास्तथैव भणितव्याः वक्तव्याः-तथा च विकलेन्द्रिया अपि देववर्जेभ्य उपपद्यन्ते इत्याशयः । भवनपतिषु उपपातप्ररूपणे देव नैरयिक पृथिवीकायिकादि पञ्चकरूपैकेन्द्रियविकलेन्द्रिय त्रयापर्याप्तकतिर्यग्योनिक पञ्चेन्द्रिय संमूछिमापर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्येभ्यः उत्पादस्य प्रतिषेधः, शेषेभ्यो विधानम् , पृथिवीकायिकाप्कायिकवनस्पतिकायिकेषु उपपातप्ररूपणे तु सकलनारकसनत्कुमारादिदेवेभ्य-उपपातस्य यह है कि तेजाकायिक और घायुकायिक जीव देवों को छोड कर अन्य सब से उत्पन्न होते हैं । वनस्पतिकायिकों का कथन पृथ्वी कायिकों के समान है । द्वीद्रिअ और श्रीन्द्रिय जीव, तेजाकायिकों और वायुकायिकों के समान देवों को छोड कर शेष से उत्पन्न होते हैं। आशय यह है कि विकलेन्द्रिय जीव देवों से उत्पन्न वहीं होते। भवनवासियों में उपपात की प्ररूपणा करते हुए देवों, नारकों, पृथ्वीकायिक आदि पांच एकेन्द्रियों, तीन विकलेन्द्रियों, अपर्याप्तक तिर्यंच पंचेन्द्रियों, संमूर्छिम एवं अपर्याप्तक गर्भज मनुष्यों से उत्पाद का निषेध किया गया है। शेष जीवों से उत्पन्न होने का विधान किया गया है । पृथिवीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में उपपात की प्ररूपणा करते हुए सकलनारक, एवं सनत्कुमार आदि देवों से उत्पात होने का निषेध किया गया है। तेजःવાયુકાયિક જીવ દે સિવાય બીજા બધાથી ઉત્પન્ન થાય છે. વનસ્પતિકાયિકનું કથન પૃથ્વીકાયિકના સમાન છે. દ્વીન્દ્રિય અને ત્રીન્દ્રિય જીવ, તેજ કાયિક અને વાયકાયિકોના સમાન દે સિવાય બાકીના બધા થી ઉત્પન્ન થાય છે. આશય એ છે કે વિલેન્દ્રિય જીવ દેથી ઉત્પન્ન નથી થતા. ભવનવાસિયોમાં ઉપપાતની પ્રરૂપણ કરતા દેવો નારકે પૃથ્વીકાયિક આદિ પાંચ એકેન્દ્રિયે ત્રણ વિધેન્દ્રિય અપર્યાપ્તક, તિયચ પંચેન્દ્રિય, સંમછિમ, તેમજ અપર્યાપ્તક ગર્ભજ મનુષ્યથી ઉત્પાદન નિષેધ કરાયેલ છે. પૃથ્વીકાયિક, અષ્કાયિક, અને વનસ્પતિકાયિકમાં ઉપ પાતની પ્રરૂપણ કરતા સકલ નારક તેમજ સનસ્કુમાર આદિ દેવામાં ઉપાદ હવાનો નિષેધ કર્યો છે. શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૨
SR No.006347
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages1177
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size68 MB
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