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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२७ ब्रह्मलाकादिदेवानां स्थानादिकम् ९२९ पर्याप्तानाम् स्थानानि प्रज्ञप्तानि, त्रिष्वपि लोकस्य असंख्येय मागे, तत्र खलु बहवः आरणाच्युता देवाः परिवसन्ति, अच्युतोऽत्र देवेन्द्रो देवराजः परिवसति, मवरम् त्रयाणां विमानावासशतानां, दशानां सामानिकसाहस्रीणाम्, चखारिंशतः आत्मरक्षकदेवसाहस्रीणाम् आधिपत्यम् कुर्वन् यावद् विहरति, द्वात्रिंशद् अष्टाविंशतिः, द्वादशअष्ट चत्वारि च शतसहस्राणि, पञ्चाशद् चत्वारिंशद् षट् च सहस्राणि सहस्रारे ॥१४६॥ आनतप्राणतकल्पे चत्वारि शतानि आरणाच्युतयो वडिसए) जातरूपावतंसक (मज्झे एत्थ अच्चुयवडिंसए) इनमें मध्य में अच्युतावतंसक है (ते णं वडिंसया) वे अवतंस (सव्वरयणामया) सर्वरत्नमय (जाच पडिरूवा) यावत् प्रतिरूप हैं (एत्थ णं आरणच्चुयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता) यहां पर्याप्त और अपर्याप्त आरण एवं अच्युत देवों के स्थान कहे हैं (तिसु वि लोगस्स असंखेजइभागे) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं (तत्थ णं) वहाँ बहवे आरणच्चुया देवा परिवसंति) बहुत आरणअच्युत देव निवास करते हैं (अच्चुए एत्थ देविंदे देवराया) अच्युत यहां देवेन्द्र देवराज (परिवसइ) वसता है (जहा पाणए) प्राणत के समान (जाव विहरइ) यावत् विचरता है (नवरं तिण्हं विमाणावाससयाणं) विशेष यह कि तीन सौ विमानों का (दसण्हं सामाणियसाहस्सीणं) दस हजार सामानिकदेवों का (चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं) चालीस हजार आत्मरक्षकदेवों का (आहेवच्चं कुव्यमाणे) आधिपत्य करता है (जाव विहरइ) यावत् विचरता है। ते अस। (सव्वरयणामया) सर्वरत्नमय (जाव पडिरूवा) यावत् प्रति३५ छ (एत्थ णं आरथच्चुयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता) सहि पर्याप्त अपर्याप्त मा२१] भने ५-युत वोना स्थान ४i छ (तिसुवि लोयस्स असंखेज्जइ भागे) त्राणे अपेक्षामाथी सोना असण्यतमा भागमा छ (तत्थणं) त्यां (बहवे आरणच्चुया देवा परिवसंति) घ २मा२-५-युत उप निवास ७३ छ (अच्चए एत्थ देवि दे देवराया) अच्युत मडि हेवेन्द्र ४१२२४ (परिवसइ) से छे (जहा पाणए) प्राशुतनी समान (जाव विहरइ) यावत् वियरे छे (नवरं तिण्हं विमाणावाससयाण) विशेषता थे छ ॐ त्रासो विमानाना (दसण्हं सामाणिय सहस्सीण) ६श हु२ सामानि हेवोना (चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहरसीण) यासीस २ यात्म२१४ वोन (आहेवच्च कुञ्चमाणे) माधिपत्य ४२॥ ५४॥ (जाव विहरइ) यावत् वियरे छे. प्र० ११७ શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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