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________________ ९२८ - प्रज्ञापनासूत्रे त्रीणि विमानावासशतानि भवन्ति इत्याख्याम्, तानि खलु विमानानि सर्वरत्नमयानि अच्छानि श्लक्ष्णानि, मसृणानि घृष्टानि मृष्टानि नीरजांसि निर्मलानि निष्पङ्कानि, निष्कङ्कटच्छायानि. सप्रमाणि, सश्रीकाणि, सोद्योतानि, प्रासा. दीयानि, दर्शनीयानि, अभिरूपाणि प्रतिरूपाणि, तेषां विमानानाम् कल्पानाम् बहुमध्यदेशभागे पश्चावतंसकाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा अङ्कावतंसकाः स्फटिकावतंसको, रत्नावतंसको जातरूपावतंसकः मध्ये अत्र अच्युतावतंसकः ते खलु अवतंसका: सर्वरत्नमयाः यावत् प्रतिरूपाः, अत्र खलु आरणाच्युतानाम् देवानां पर्याप्तानताकारक (दरिसणिज्जा) दर्शनीय (अभिरूवा) अभिरूप (पडिरूवा) प्रतिरूप (तत्थ णं) यहां (आरणच्चुयाणं देवाणं तिणि विमाणावास सया भवंतीति मक्खायं) आरण-अच्युत देवों के तीन सौ विमान हैं. ऐसा कहा है (ते णं विमाणा) वे विमान (सन्चरयणामया) सर्वरत्नमय (अच्छा) स्वच्छ (सम्हा) चिकने (लोहा) कोमल (घट्टा) पृष्ट (मट्ठा) पृष्ट (नीरया) रज रहित (निम्मला) निर्मल (निप्पंका) पंक रहित (निक्कंकडच्छाया) निरावरण कान्ति वाले (सप्पभा) प्रभावान् (सस्सिरीया) सश्रीक (स उज्जोया) उद्योतयुक्त (पासादीया) प्रसन्नता कारक (दरिसणिज्जा) दर्शनीय (अभिरूवा) अभिरूप (पडिरूवा) प्रतिरूप (तेसि णं) उन (विमाणाणं) विमानों के (कप्पाणं) कल्पों के (बहुमज्झदेसभाए) बीचों बीच (पंच वडिसया) पांच अवतंसक (पण्णत्ता) कहे हैं (तं जहा) वे इस प्रकार (अंकवडिसए) अंकावतंसक (फलिहवडिसए) स्फटिकावतंसक (रयणवडिंसए) रत्नावतंसक (जायरूव(अभिरूवा) मनि३५ (पडिरूवा) प्रति३५ (एत्थणं) मा (आरणच्चुयाणं देवाणं तिणि विमाणावाससया भवंतीति मक्खाय) मा२९१ सयुत वोन। यसो विमान त, म घुछ (तेणं विमाणा) ते विमान (सव्वरयणामया) स4 रत्न भय (अच्छा) २१२७ (सहा) [५४ (लण्हा) मिस (घद्वा) दृष्ट (मद्वा) भृष्ट (नीरया) २०४२डित (निम्मला) निभ (निप्पंका) ५४ २डित (निक्कंकडच्छाया) निरा१२६ तिवाणा (सप्पभा) प्रभावान् (सस्सिरिया) सश्री (सउज्जोया) धोत युक्त (पासादीया) प्रसन्नता ४१२४ (दरिसणिज्जा) शनीय (अभिरुवा) अनि३५ (पडिरूया) प्रति३५ (तेसिणं) तेस। (विमाणाणं) विमानाना (कप्पाणं) ४८पाना (बहमज्झदेसभाए) पथ्यापथ्य (पंचवडिंसया) पांय अपत स४ (पण्णत्ता) घi छ (तं जहा) ते २॥ ५॥२ (अंक वडिसए) २५वत स४ (फलिहवडिसए) २४टिवत'स४ (रयणवडिसए) रत्नावत स (जायरूवव डिसए) नत३५ायत (मज्झे एत्थ अच्चुयवडिसए) तमना मध्यभा मत्युतायत छ (तेणं वडिसया) શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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