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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.२२ पिशाचदेवानां स्थानानि ८१३ वसन्ति ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नमयस्य काण्डस्य योजनसहस्त्रबाहल्यस्य, उपरि एक योजनशतमवगाह्य, अधश्चैकं योजनशतं वर्जयित्वा मध्ये अष्टसु योजनशतेषु, अत्र खलु दाक्षिणात्यानां पिशाचानां देवानां तिर्यगू असंख्येयानि भौमेयनगरावाससहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातं, तानि खलु भवनानि यथा औषिको भवनवर्णकस्तथा भणितव्यानि, यावत् प्रतिरूपाणि, अत्र खलु दाक्षिणात्यानां पिशा. हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के पिशाच देवों के स्थान कहां हैं ? (कहिणं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ?) हे भगवन् ! दक्षिणदिशा के पिशाच देव कहां निवास करते हैं ? (गोयमा !) हे गौतम ! (जंबुद्दीवे दीवे) जम्बूद्वीप नामक द्वीप में (मंदरस्स पव्वयस्स) मन्दर पर्वत के (दाहिणेणं) दक्षिण में (इमीसे) इस (रयणप्पभाए पुढवीए) रत्नप्रभा पृथ्वी के (रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सवाहल्लस्स) एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के (उवरि) ऊपर (एगं जोयणसंयं) एक सौ योजन (ओगाहित्ता) अवगाहन करके (हेहा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता) और नीचे एक सौ योजन छोडकर (मज्झे अट्ठसु जोयणसएसु) मध्य में आठ सौ योजनों में (एत्थ णं) यहां (दाहिणिल्लाणं पिसायाणं) दाक्षिणात्य पिशाच (देवाणं) देवों के (तिरियं) तिर्छ (असंखेज्जा भोमेज्जनगरावाससहस्सा) असंख्य हजार नगरावास (भवंतीति मक्खायं) हैं, ऐसा कहा है (ते णं भवणा) वे भवन (जहा ओहिआ भवणवण्णओ तहा भाणियव्यो) जैसा दक्षिण दिशाना पिय ठेवाना स्थान यां या छ ? (कहिणं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति?) भगवन् ! क्षिािना पिय हे। ४यां निवास ४२ छ ? (गोयमा !) 3 गौतम (जम्बुद्दीवे दीवे) मुदी५ नाम दीपमi (मंदरस्स पब्बयस्स) भन्४२ ५'तना (दाहिणेणं) दक्षिणमा (इमीसे) २. (रयणप्पभाए पुढवीए) २त्नमा पृथ्वीना (रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स) ४ २ यापन मोटा २त्नमय isना (उबरि) अ५२ (एगं जोयणसयं) मे से योन (ओगाहित्ता) २५५२॥डन ४रीने (हेढा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता) मने नीये मे से योन ने (मज्झे अद्वसु जोयणसएसु) मध्यमा मासे योनिमा (एत्थ णं) मी (दाहिणिल्लाणं पिसायाणं) इक्षिणात्य (५शाय (देवाणं) वाना (तिरियं) ति (असंखेज्जा भोमेज नगरावाससहस्सा) AAvi M२नारावास (भवंतीति मक्खाय) छ, सेभ छे (ते णं भवणा) ते सपने (जहा ओहिओ भवणवण्णओ तहा भाणियब्बो) से सभु-यय अपनानु वन यु ते । શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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