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________________ ७२२ प्रज्ञापनासूत्रे तिसहस्रोत्तरे योजनशतसहस्र, अत्र खलु दाक्षिणात्यानाम् असुरकुमाराणाम् देवानाम् चतुस्त्रिंशद् भवनावासशतसहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातं, तानि खलु भवनानि बहिर्वृत्तानि, अन्तश्चतुरस्त्राणि, तानि चैव वर्णतो यावत् प्रतिरूपाणि, अत्र खलु बहवो दाक्षिणात्याः असुरकुमारादेवा, देव्यः परिवसन्ति, कृष्णाः लोहिताक्षास्तथैव यावद्भुञ्जाना विहरन्ति, एतेषां तथैव त्रायस्त्रिंशकलोकपाला भवन्ति, एवं सर्वत्र भणितव्यम् भवनवासी खलु चमरः, अत्र असुरकुमारेन्द्रः असुरकुमारराजः परिवसति, कृष्णो महानीलसदृशो यावत् प्रभासयन् स खलु तत्र चतुस्त्रिंशतो (अट्टहुत्तरे जोयणसहस्से) एक लाख अठ्ठहत्तर हजार योजनों में (एत्थ ण) इन स्थानों में (दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं) दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के (चउत्तीसं भवणावाससयसहस्सा) (चौत्तीस लाख भवनावास (भवंतीति मक्खायं) होते हैं, ऐसा कहा है। (ते णं भवणा) वे भवन (बाहिं वहा) बाहर से गोल (अंतो चउरंसा) अन्दर से चौकोर (सो चेव वण्णओ) वही पूर्वोक्त वर्णन समझ लेना चाहिए (जाव) यावत् (पडिरूवा) प्रतिरूप हैं (एत्थ णं) यहां (दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराण देवाणं (पजत्तापजत्ताणं) पर्यास और अपर्याप्त दक्षिणी असुरकुमार देवों के (ठाणा) स्थान (पण्णत्ता) कहे हैं (तीसु वि) तीनों अपेक्षाओं से (लोगस्स) लोक के (असंखेजइभागे) असंख्यातवें भाग में हैं (तत्थ णं) वहां (बहवे) बहुत-से (दाहिणिल्ला असुरकुमारा) दक्षिणी असुरकुमार (देवा देविओ) देव और देवियां (परिवसंति) निवास करते हैं (काला) काले (लोहिभाभयां (अट्ठहुत्तरे जोयणसयसहस्से) मे ५ मियोत्तर ०२ योनमा (एत्थ ण) २५॥ स्थानमा (दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं) दक्षिण दिशान। सुशुमार हेवोना (चउत्तीसं भवणावाससयसहस्सा) यात्रीसा सवनापास (भवंतीति मक्खाय) थाय छे, सेभ यु छे. (तेणं भवणा) ते भवन (बाहिं वट्ठा) माथी १२ (अंतो चउरसा) म४२थी या२स (सो चेव वण्णओ) ते पूर्व ४३ पणुन सभा से (जाव) यावत् (पडिरूवा) प्रति३५ छ (एत्थणं) २03 (दाहिणिल्लाणं असुरकुमार राणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं) पर्याप्त मने मर्यात दक्षिणी असुरशुभा२हेवाना (ठाणा) स्थान (पण्णत्ता) ४i छ (तीसु वि) ये अपेक्षायाथी (लोगस्स) सोना (अस खेजइ भागे) असण्यातमा लामो छ. (तत्थ णं) त्यां (बहवे) । (दाहिणिल्ला असुरकुमारा) दक्षिी असुरशुमार (देवा देवीओ) द्वेष भने हेवीस। (परिवसंति) निवास ४३री २द छ (काले) ॥ (लोहियक्खा ) २४त नेत्र ! શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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