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________________ प्रमेयबोधिनी टीका द्वि. पद २ सू.१८ असुरकुमारदेवानां स्थानानि ६९९ वर्णेन, दिव्येन गन्धेन, दिव्येन स्पर्शन, दिव्येन संहननेन, दिव्येन संस्थानेन, दिव्यया ऋद्धया, दिव्यया युत्या, दिव्यया प्रभया, दिव्यया छायया, दिव्येन अर्चिषा दिव्येन तेजसा, दिव्यया लेश्यया, दशदिशः उद्योतयन्तौ, प्रभासयन्तौ तौ खलु तत्र स्वेषां स्वेषां भवनावासशतसहस्राणाम्, स्वासां स्वासां सामानिकसाहस्त्रीणाम्, स्वेषां स्वेषां त्रायस्त्रिंशकानाम्, स्वेषां स्वेषाम् लोकपालानाम्, स्वासां धारण करने वाले (भासुरबोंदी) देदीप्यमान शरीर वाले (पलंबवणमालधरा) लम्बी वनमालाओं के धारक (दिवेणं वन्नेणं) अद्भुत वर्ण से (दिव्वेणं गंघेणं) अद्भुत गंध से (दिव्वेणं फासेणं) अद्भुत स्पर्श से (दिव्वेणं संघयणेणं) दिव्य संहनन से (दिवेण संठाणेणं) दिव्य आकृति से (दिव्वाए इड्डीए) दिव्य ऋद्धि से (दिव्वाए जुईए) दिव्य द्युति से (दिव्चाए पभाए) दिव्य प्रभा से (दिवाए छायाए) दिव्य कान्ति से (दिवाए अच्चीए) दिव्य ज्योति से (दिव्वेणं तेएणं) दिव्य तेज से (दिव्वाए लेस्साए) दिव्य शारीरिक वर्ण सौन्दर्य से (दस दिसाओ) दशों दिशाओं को (उज्जोवेमाणा) प्रकाशित करते हुए (पभासेमाणा) शोभित करते हुए (तेणं) वे असुरकुमार (तत्थ) वहां (साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं) अपने-अपने लाखों भवनों का (साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं) अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का (साणं साणं तायत्तीसाणं) अपने-अपने त्रायस्त्रिंशक देवों का (साणं साणं लोगपालाणं) अपने-अपने लोकपालों का (साणं नारी श्रेष्ठ पत्र परेवा (कल्लाणगमल्लाणुलेवणधरा) ४८यारी माता। तथा ५ ने घा२४] ४२१॥ वाणा (भासुरबोंदी) दीप्यमान शरीरवाणा (पलंबवण मालाधरा) सामी पनभाणायाना था२४ (दिव्वेणं वन्नेणं) सद्भुत थी (दिव्वे गं गंधेणं) महमुत सुधथी (दिव्वेणं फासेणं) महमुत २५श थी (दिव्वेणं संघयणे णं) दिव्य सहननथी (दिव्वेणं संदाणेणं) हिय तिथी (दिव्वाए इइढीए) हि०५ समृद्धि थी (दिव्वाए जुइए) हिव्यतिथी (दिव्वाए पभाए) दिव्य प्रमाथी (दिव्वाए छायाए) हिव्यतिथी (दिव्वाए अचीए) ६०य ज्योतिथी (दिव्वे णं तेएणं) दिव्य तेन्या (दिव्वाए लेसाए) ६०५ शारी२ि४ पणु सौन्य थी (दस दिसाओ) शेहिशासाने (उज्जोवेमाणा) प्रशित ४२ता (पभासे माणा) शालित. ४२॥ (तेणं) ते मसु२४मारे। (तत्थ) त्यi (साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं) पोत पोतन सामे सपनाने (साणं साणं सामाणियसाहस्सिणं) पोत पोताना । सामानि वोन (साणं साणं तायत्तीसाणं) पातपाताना त्रायशिवान। શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્ર : ૧
SR No.006346
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1029
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_pragyapana
File Size59 MB
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