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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.८१ लवणसमुद्रवर्णनम् जाव विहरई' स खलु वनषण्डो देशोने द्वे योजने विष्कम्भेण पदमवरवेदिकया तुल्यः कृष्णः कृष्णावभासः, अत्र तृणमणिस्पर्शनं यावद्वर्णनम् वानव्यन्तरादयः कृत भूरिपुण्यकर्माणः स्वकृतसुकृतिफलमनुभवन्तो विहरन्ति । सम्प्रति द्वारवतव्यतामभिधित्सुराह-'लवणस्स णं भंते ! समुदस्स कइ दारा पन्नत्ता' हे भदन्त ! लवणसमुद्रस्य कियन्ति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि दारा पन्नत्ता तं जहा विजए वेजयंते जयंते अपराजिए' चत्वारि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-विजय-वैजयंत-जयन्ताऽपराजितानि पूर्वादिषु द्वाराणि कथितानि । 'कहिणं भंते ! लवणसमुदस्स विजए णामं दारे पन्नत्ते' हे भदन्त ! लवणोदधेः कुत्रस्थाने विजयद्वारं प्रस्तुतम् ? भगवान् वेदिका है 'से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई जाव विहरइ' लवणसमुद्र का वनषण्ड कुछ कम दो योजन का चौडा है इसका वर्णन जम्बूद्वीप की पद्मवर वेदिका के वनखण्ड जैसा है यह वनषण्ड कृष्ण आदि विशेषणों वाला है यहां तृण और मणियों कास्पर्शान्त कथन जैसा पहिले प्रकट किया गया है वैसा ही है ऐसे वानव्यन्तर देव यहां अपने पुण्य कर्म के फल को भोगते हुए सुख से रहते हैं 'लवणस्स णं भंते ! समुदस्स कइ दारा पण्णत्ता' हे भदन्त ! लवण समुद्र के कितने द्वार कहे गये हैं 'गोयमा! चत्तारि दारा पण्णत्ता' हे गौतम ! लवणसमुद्र के चार द्वार कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से है 'विजए, वेजयंय, जयंते, अपराजिते' विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये द्वार पूर्व आदि दिशाओं में हैं । यही बात अव प्रश्नोत्तर द्वारा प्रकट की जाती है-'कहि णं भंते ! लवणसमुदस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते' हे भदन्त ! लवणसमुद्र का विजयद्वार कहां पर है 'गोयमा ! लवणछे ये प्रमाणुनी ॥ ५१२वे६ि४। छ. ‘से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई जाव विहरह' सवाणुसभुद्रनु वन५ ४४४ म ये योन पडाणु छ. तेनु વર્ણન જંબુદ્વીપની પદ્મવદિકાના વનખંડના વર્ણન પ્રમાણે છે. આ વનખંડ કૃષ્ણ વિગેરે વિશેષણોવાળું છે, તૃણ અને મણિ સંબંધી કથન જેમ પહેલાં કહેલ છે એ જ પ્રમાણે છે. અહિયાં વાવ્યન્તર વિગેરે દે પિતાના પુણ્ય भना जान लागवता या सुपथी २९ छ. 'लवणस्स णं भंते ! समुदस्स कइ दारा पण्णत्ता' भगवन् ! सणुसभुद्रनासा द्वा२॥ ४॥ छ ? 'गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता' गौतम ! सवसमुद्रना या दो। ४ ॥ छ. 'तं जहा' २ मा प्रभारी छ–'विजए वेजयंते जयंते अपराजिते' विय, वैश्यन्त, જયન્ત, અને અપરાજીત આ દ્વારે પૂર્વ વિગેરે દિશાઓમાં છે, એ જ વાત જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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