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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६७ विजयदेवस्य कामदेवप्रतिमापूजनम् ३४७ च भावं च अपप्प'-उदय क्षयोपशमाः ये च कर्मणो भणिताः, द्रव्यं क्षेत्र कालं भवं च भावश्च संप्रेक्षस्व'-इति छाया, 'धम्मियं ववसायं पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिनिक्खवेइ'-धार्मिकं व्यवसायं-गृहीत्वा पुस्तकरत्नं प्रतिक्षिपति-परित्यजतीत्यर्थः, 'पडि निक्खवेत्ता' प्रतिनिक्षिप्य व्यवसायं-पुस्तकं च, 'सीहासणाओ अब्भुढेइ'-सिंहासनादभ्युत्तिष्ठति, 'अब्भुटेता' सिंहासनादभ्युत्थाय, 'ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमइ'-व्यवसभायाः पूर्वद्वारेण बहिनि: सरति-वहिः प्रयाति, 'पडिनिक्खमित्ता'-प्रतिनिष्क्रम्य व्यवसायसभातः 'जेणेवगंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ'-यत्रैव पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टा नन्दा पुष्करिणी -तत्रैवापागच्छति, 'तेणेव उवागच्छित्ता गंदा पुक्खरिणी अणुपयाहिणी करेमाणे पुरस्थिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ'-तत्रोपागत्य नन्दा पुष्करिणीम् अनुप्रदक्षिणी भणिया दव्वं, खेत्तं कालं भवंच भावंच संपप्प' द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावको आश्रित करके भी कर्म की उदय, क्षय क्षयोपशम और उपशम, अवस्थाएं होती हैं। 'धम्मियं ववसायं गेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खवेइ' धार्मिक व्यवसाय करके फिर उसने उस पुस्तक रत्न को रख दिया 'पडिनिक्खवेत्ता सीहासणाओ अब्भुट्टेइ' पुस्तकरत्न को रखकर फिर वह सिंहासन से उठा 'अब्भुटेत्ता' सिंहासन से उठकर वह 'ववसायसभाओ पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं पडिनिक्खमई' उस व्यवसाय सभा से उसके पूर्व द्वार से होकर निकला 'पडिनिक्खमित्ता' बाहर निकल कर 'जेणेव गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ' वह जहां नन्दा पुष्करिणी थी वहां पर गया 'तेणेव उवागच्छित्ता गंदा पुक्खरिणी अणुपयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसई' वहां जाकर वह उस नंदा पुष्करिणी में प्रदक्षिणा देकर उसके पूर्वद्वार से प्रविष्ट हुआ संसप्प' द्रव्य, क्षेत्र, ७, म भने भावना माश्रय शन. ५ भनी त्य, क्षय, ५शम अने २०१२था। उय छे. 'धम्मियं ववसायं गेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खमइ' पाभिव्यवसाय शन ते पछी तो ये पुरत: २त्नने भवी हीधु'. 'पडिणिक्खमित्ता सीहासणाओ अब्भुढेई' पुस्त४ रत्नन भूीन ते पछी ते सिंहासन ५२थी नीये तो. 'अब्भुटेत्ता' सिहासन ५२थी उतरीन ते 'ववसायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं पडिणिक्खमइ' से व्यवसाय समाना पूर्व दिशा द्वारे धने पा२ नीयो. 'पडिणिक्खमित्ता' ५२ नीजीन 'जेणेव गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ' ते यांना ५५४२णी ती त्यां गया. 'उवागच्छित्ता गंदाक्खरिणी अणुपयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसई' त्यो न तो ये नह। ५४रिणीनी प्रदक्षिणा शेन तेन જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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