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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१५२ जीवानां नवविधत्वनिरूपणम् १५१७ वानाह-'गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा' सर्वेभ्यः स्तोका मनुष्याः 'नेरइया असंखेज्जगुणा' तेभ्यो नैरयिका असंख्येयगुणाः 'देवा असंखेज्जगुणा' एभ्यो देवा असंख्येयगुणाः 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा' एभ्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनयोनिकाऽसंख्येयगुणाः । 'चउरिदिया० तेइंदिया० बेइंदिया विसेसाहिया' एभ्यश्चतुरिन्द्रियाः ततस्त्रीन्द्रियास्ततश्च द्वीन्द्रिया क्रमशो विशेपाधिकाः । 'सिद्धा अणंतगुणा' द्वीन्द्रियेभ्यः अनन्तगुणाः सिद्धानामनन्तत्वात् । 'एगिदिया अणंतगुणा' एभ्य एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः वनस्पतीनामानन्त्यात् ।।सू० १५२॥ मूलम् - अहवा णवविहा सव्वजीवा पन्नत्ता तं जहा पढमसमयणेरइया अपढमसमयणेरइया पढमसमयतिरिवखजोणिया में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा णेरइया असंखेज्जगुणा' हे गौतम ! सब से कम मनुष्य हैं इनकी अपेक्षा 'णेरइया असंखेज्जगुणा' नैरयिक असंख्यातगुणे अधिक हैं इनकी अपेक्षा 'देवा असंखेज्जगुणा' देव असंख्यातगुणें अधिक हैं 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा' इनकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव असंख्यातगुणें अधिक हैं. 'चउरिंदिया विसेसाहिया' इनकी अपेक्षा चौइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । इनकी अपेक्षा 'तेइंन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । इनकी अपेक्षा 'बेइंदिया विसेसाहिया' दोइन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं । इनकी अपेक्षा 'सिद्धा अणंतगुणा' सिद्ध जीव अनन्त गुणें अधिक हैं । और सिद्धों की अपेक्षा भी 'एगिदिया अणंतगुणा' एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणें अधिक हैं। क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं ॥१५२।। वाना ४२di विशेषाधि४ छ ? २41 प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री छ -'गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा णेरइया असंखेज्जगुणा' 3 गौतम ! सौथी माछा मनुष्यो. तेना ४२di ‘णेरइया असंखेज्जगुणा' नै२यि४ ७वो मसच्यात पधारे. तना ४२di 'देवा असंखेज्जगुणा' हे। मध्यात! पधारे छ. 'पंचिदियतिरित खजोजोणिया असंखेज्जगुणा' तेन। ४२तां पश्यन्द्रिय तिय योनि सस ध्याता। पधारे छे. 'चउरिंदिया विसेसाहिया' तेना ४२त या२ द्रियवाणा वा विशेषाधि छे. तेना ४२di 'तेइंदिया विसेसाहिया' ऋ द्रिय विशेषाधि छ ? तेना ४२di 'बेइंदिया विसेसाहिया' में दिया | विशेषाधि४ छे. तेन। ४२i 'सिद्धा अणंतगुणा' सिद्ध यो मन त पधारे छ. अने सिद्वाना ४२त ५५५ 'एगिदिया अणंतगुणा' से दिया । અનંતગણું વધારે છે. કેમકે–વનસ્પતિકાયિક જીવ અનંત હોય છે. જે સૂ. ૧૫૨ છે જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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