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________________ १५१२ जीवाभिगमसूत्र भगवानाह-'गोयमा !' जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं वणस्सइकालो' जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण वनस्पतिकालः । 'बेइं दिए णं भते. !" द्वीन्द्रियः खलु भदन्त ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं- उक्कोसेणं संखेज्जं कालं' जघन्येनान्तमुहूर्तमुत्कर्षेण संख्येयं कालं यावत्कायस्थितिमान् । 'एवं तेइंदिए वि' एवमेव त्रीन्द्रियोऽपि-चतुरिन्द्रियोऽपि कायस्थितिमान् । 'नेरइयाणं भंते !० जहन्नेणं काल तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उवकोसेणं घणस्सइकालो' हे गौतम ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रिय रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक वनस्पति काल अनन्तकाल तक रहता है 'वेइंदिए णं भंते ! जह० अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेजकालं' दोइन्द्रिय जीव दोइन्द्रियरूप से कितने काल तक रहता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं । हे गौतम ! दोइन्द्रिय जीव दोइन्द्रिय रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक संख्यात काल तक रहता है 'एवं तेइंदिए वि' इसी प्रकार से तेइन्द्रिय जीव भी तेइन्द्रिय रूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक संख्यात काल तक रहता है 'चउ० 'चौइन्द्रिय जीव भी चौइन्द्रियरूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक संख्यात काल तक रहता है 'णेरड्या णं भते !' हे भदन्त ! नैरयिक प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४९ छे 3- 'गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइ कालो' गौतम ! ४ छन्द्रियवा ४ द्रिय पाथी ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂત પર્યન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે વન२५ति प्रमाण मानत पयत २९ छे. 'बेइंदिएणं भते ! जहण्णे णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं' मेद्रिया wो मेद्रिय पाथी કેટલા કાળ પર્યન્ત રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! બે ઇંદ્રિયવાળા જ બે ઈદ્રિયપણાથી ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂત પર્યન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાતકાળ પર્યન્ત રહે છે. 'एवं ते इंदिए वि' मेरी प्रमाणे १ द्रियाणा व ५ १५ द्रियाथी ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂર્ત પર્યન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાत पय-त २ छ. 'चरिंदिया' या२ द्रिय छ। ५५ या२ द्रिय પણથી ઓછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂર્ત પર્યત રહે છે. અને વધારેમાં पधारे से ज्यात ४ ५यन्त २ छ. 'णेरइंया ण भंते ! भगवन् ! नै२यि જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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