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________________ १५०० जीवाभिगमसूत्रे पर्यवसितवात् । 'अणाइयस्स सपज्जबसियस्स णत्थि अंतरं' अनादिकस्य सपर्यवसितस्य मत्यज्ञानिनो नास्त्यन्तरम् । केवलम्-'साईयस्त सपज्जवसियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं छावहि सागरोवमाई साइरेगाई' सादिकस्य सपयवसितस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूतम् उत्कर्षतः षट् पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि । 'एवं सुय अन्नाणिस्स वि एवं श्रुताऽज्ञानिनस्त्रिविधस्य द्वयोर्नास्त्यन्तरम् तृतीयस्यान्तरमेवमेव । ___'विभंगनाणिस्स णं भंते ! अंतरंग' विभङ्गज्ञानिनः खलु भदन्त !० जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तम्-उत्कर्षेणाऽनन्तकालस्य है क्योंकि यह अभव्य की श्रेणि में ही होता है अतः अनादि काल से लगे आये इसका मत्यज्ञान का कभी विनाश नहीं होता है जो दूसरे नम्बर का मत्यज्ञानी है वह भव्य की कोटि में रखा गया है अतः मत्यज्ञान इसका विनष्ट होने पर यह पुनः मत्यज्ञानी नहीं वनता है इसलिये यहां पर भी अन्तर नहीं आता है तथा तीसरा नम्बर का जो सादि सपर्यवसित मत्यज्ञानी हैं उसका अन्तर होता है सो यह अन्तर 'जहण्णे णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाइं साइरेगाई जघन्य से तो एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक ६६ सागरोपम का है ‘एवं सुयअन्नाणिस्स वि' इसी प्रकार से श्रुताज्ञानी भी तीन तरह के होते हैं-एक अनादि अपर्यवसित श्रुताज्ञानी और दूसरा अनादि सपर्यवसित श्रुताज्ञानी सो इन दोनों का अन्तर नहीं होता है रहा तीसरे नम्बर का श्रुताज्ञानी-सो इनका अन्तर सादि सपर्यवसित मत्यज्ञानी के जैसा ही है 'विभगनाणिस्स નથી. કેમકે–તે અભવ્યની શ્રેણીમાં જ હોય છે. તેથી અનાદિ કાળથી લાગેલા મત્યજ્ઞાનને કઈ પણ કાળે વિનાશ થતું નથી. બીજા પ્રકારના જે મત્યજ્ઞાની છે, તે ભવ્યની કોટીમાં આવેલ છે. તેથી તેમનું મત્યજ્ઞાન નાશ પામ્યા પછી તે ફરીથી મત્યજ્ઞાની બનતા નથી. તેથી અહીયાં પણ અંતર આવતું નથી. તથા ત્રીજા પ્રકારના જે સાદિ સપર્યાવસિત મત્યજ્ઞાની છે, તેનું અંતર डाय छे. मने त २५२ 'जहण्णेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई साइरेगाई' धन्यथी ये मतभुइतनु डाय छे. मने थी ४४४ पधारे ६६ छ।स४ साशयमनु छ. 'एवं सुय अन्नाणिस्स वि' मे०४ प्रमाणु श्रुताज्ञानी પણ ત્રણ પ્રકારના હોય છે. તેમાં એક અનાદિ અપર્યાવસિત શ્રુતજ્ઞાની અને બીજા અનાદિ સપર્યાવસિત શ્રુતજ્ઞાની આ બન્નેનું અંતર હોતું નથી. તથા ત્રીજા પ્રકારના કૃતાજ્ઞાનીનું અંતર સાદિ સંપર્યાવસિત મત્યજ્ઞાનીના ४थन प्रमाणु छे. 'विभंगनाणिस्स ण भंते ! अंतरं०' लगवान् ! विज्ञानी જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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