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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१४९ जीवानां षइविधत्वनिरूपणम् १४५९ अवधिज्ञानी ३ मनःपर्यवज्ञानी४ केवलज्ञानी ५ अज्ञानी ६ । अथैषां कायस्थितिः 'आभिणिवोहियाणी णं भंते ! आभिनिबोहियनाणि त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?' आभिनिबोधिकज्ञानी-आभिनिधिक इति कालतो भदन्त ! कियचिरं खलु० ? भगवानाह-'गोयमा !' गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उकोसेणं छावडिं सागरोवमाई साइरेगाई जघन्यप्रमाणतोऽन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टतः षट् षष्टिः सातिरेक सागरोपमाणि तानि विजयादि देवेषु बारद्वयगमनेन भावनीयानि । 'एवं सुयनाणी, मणपजवनाणी, केवलनाणी अण्णाणी' आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी केवलज्ञानी और अज्ञानी इनकी कायास्थति का विचार _ 'आभिणिबोहियनाणी णं भंते ! आभिणिबोहियणाणित्ति कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! अभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिक ज्ञानीरूप से कितने काल तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! जह० अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाइं हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञानी आभिनिबोधिक ज्ञानिरूप से कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और अधिक से अधिक कुछ अधिक ६६ सागरोपम तक रहता है । सम्यक्त्व का काल जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है अतः आभिनिबोधिक ज्ञानी का भी जघन्य से कायस्थिति का काल एक अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है और कुछ अधिक ६६ सागरोपम का जो उत्कृष्ट काल कहा गया है यह विजयादि विमानों में दो बार गमन कर ने से कहा गया है । इसी नाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी, केवलनाणी अण्णाणी' मालिनियEिxજ્ઞાની શ્રુતજ્ઞાની, અવધિજ્ઞાની, મનઃ પર્યાવજ્ઞાની કેવળજ્ઞાની અને અજ્ઞાની. તેમની કાયસ્થિતિનો વિચાર'अभिणिबोहियनाणी णं भंते ! आभिणिबोहियनाणित्ति कालआ केवच्चिरं होइ' હે ભગવન! આભિનિબધિકજ્ઞાની આભિનિબંધિક જ્ઞાનીપણાથી કેટલાકાળ પર્યન્ત २९ छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ । 'गोयमा! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तं उक्कोसेणं छावदि सागरोवमाई' गौतम ! मालिनिमाधिज्ञानी આભિનિધિક જ્ઞાનપણથી ઓછામાં ઓછા એક અંતમુહૂર્ત પર્યન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે કંઈક વધારે ૬૬ છાસઠ સાગરોપમ પર્યન્ત રહે છે. સમ્યક્ત્વને કાળ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂતને કહેવામાં આવેલ છે તેથી આભિનિધિકજ્ઞાનીને પણ જઘન્યથી કાયસ્થિતિને કાળ એક અંતમુહૂર્તને કહેવામાં આવેલ છે. અને કંઈક વધારે ૬૬ છાસઠ સાગરોપમને જે ઉત્કૃષ્ટ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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