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________________ १४४६ जीवाभिगमसूत्रे सिए' नो संयत- नो असंयत नो संयतासंयतः सादिकोsपर्यवसित एव त्रितय प्रतिषेधवर्त्ती सिद्धः । ' संजयस्स - संजया संजयस्स दोपहवि अंतरं जहन्नेणं 'अंतोमुहुतं' द्वयोरपि संयतस्य संयताऽसंयतस्य चान्तर्मुहूर्तमन्तरं जघन्येन 'उवको सेणं अवडू पोग्गल परियह देखणं' उत्कर्षेण अनन्तं कालं अनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिण्यः कालतः, क्षेत्रतच अपार्द्धपुद्गलपरावर्त्त देशोनम्, 'असंजयस्स आदि दुवे णत्थि अंतरं' असंयतस्य आद्य द्वयोर्नास्त्यन्तरम् अनाद्यपर्यवसितस्याsनादि सपर्यवसितस्य च तयोर्यथाक्रमं पर्यवसितत्वं प्रतिपाताऽभावात् । संजयए सादीए अपज्जवसिए' जो नो संयत नो असंयत नो संयतासंयतरूप सिद्ध जीव हैं वे सादि अपर्यवसित होते हैं । अन्तर कथन - 'संजयस्स संजया संजयस्स दोन्ह वि अंतरं जहणेण अंतोमुहुत्तं संयत का और संयतासंयत का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है इतने काल की समाप्ति के बाद पुनः संयत या संयतासंयत का लाभ हो जाता है तथा उत्कृष्ट से अन्तर अनन्त काल तक का है इसमें अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती हैं और क्षेत्र की अपेक्षा कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त काल समाप्त हो जाता है । इतने काल के बाद पूर्व में अवाप्त संयम वाले जीव को पुनः नियम से संयम का लाभ हो जाता है । 'असंजयस्स आदि दुवे णत्थि अंतरं' अनादि अपर्यवसित असंयत के और अनादि सपर्यवसित असंयत के अन्तर नहीं होता है क्योंकि प्रथमविकल्प का असंयत अपर्यवसित है तथा द्वितीय प्रकार नो संजयासजए सादीए अपज्जवासिए' ? न संयंत नो असंयंत संयता સચતરૂપ સિદ્ધ જીવ છે તેએ સાદિ અપ વિસત હાય છે. અંતર દ્વારનું કથન 'संजयस्स संजया संजयस्स दोन्ह वि अंतरं जहण्णेणं अतोमुहुत्त' સંતનું અને સયતાસયતનું અંતર જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂત નું છે. એટલે કાળ સમાપ્ત થયાપછી ક્રીથી સયત અથવા સંયતાસ યતપણા ના લાભ થાય છે. તથા ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળ પન્તનુ અંતર હાય છે. એમાં અનંત ઉત્સર્પિણીયા અને અનંત અવસર્પિણીયા સમાપ્ત થઈ જાય છે. અને ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી કઇક એછેઃ અ પુદ્ગલ પરાવ કાળ સમાપ્ત થઈ જાય છે. એટલા કાળ પછી પહેલાં પ્રાપ્ત કરેલ સંયમવાળા જીવને ક્રીથી नियमथी संयम नो साल यह भय छे. 'असंजयस्स आदि दुवे णत्थि अंतरं અનાદિ અપ વસિત અસયતને અને અનાદિ સપ વસિત અસયતને અંતર જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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