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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. १० सू. १४७ जीवानां चातुर्विध्यनिरूपणम् १४४५ :-बाल जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् तावता कालेन कस्याऽपि संयतखलाभात् उत्कर्षेणानन्तं कालम् अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः कालतः क्षेत्रतश्चाऽपार्धं पुद्गलपरावर्त देशोनम् | 'संजया संजए जहन्नेणं अंतोमुहुत्त - उक्कोसेणं देखूणा पुव्वकोडी' संयतासंयतो गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, संयता संयतत्व प्रतिपत्तेः भङ्गबहुलतया जघन्येनापि एतावन्मात्रप्रमाणत्वात्, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटि :काले तद् भावात् । 'नो संजय नो असंजय नो संजय संजए साईए अपज्जव - को प्राप्त करने वाला होता है । सादि सपर्यवसित जो असंयत जीव है वह या सर्वविरति से भ्रष्ट हुआ होता है या देशविरति से भ्रष्ट हुआ होता है ऐसा वह असंयत अवस्था में जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है इसके बाद वह कोई न कोई संयमभाव को प्राप्त कर लेता है क्योंकि 'तिन्हं सहस्सपुहुत्तं' ऐसा आगम का वचन है तथा उत्कृष्ट से यह इस अवस्था में अनन्तकाल तक रहता है इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां समाप्त हो जाती है । क्षेत्र की अपेक्षा कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त रूप काल समाप्त हो जाता है। 'संजयासंजए जहन्नेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं देणा पुव्वकोडी' संयतासंयत जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त संयतासंयतरूप में रहता है और उत्कृष्ट से कुछ कम एक पूर्वकोटि तक संयतासंयतरूप से रहता है क्योंकि बाल काल में इसका सद्भाव नहीं होता है । 'नो संजय नो असंजय नो संजया કોઇપણ સમયે પામી જાય છે. અને પ્રાપ્ત કરેલ સયમથી જ તે સિદ્ધિને પ્રાપ્ત કરી લેવાવાળા હૈાય છે. સાદિસપ`વસિત જે અસયત જીવ છે. તે કદાચ સવિરતિથી ભ્રષ્ટ થયેલ હોય છે, અથવા દેશવિરતિથી ભ્રષ્ટ થયેલ હાય છે. એવાને અસયત અવસ્થામાં જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂત પન્ત રહે છે અને ते पछी ते अ ने अ संयम लावने प्राप्त उरीले छे. प्रेम - 'तिन्हं सहस्स पुहुत्त" से प्रमाणे आगमनुं वथन छे तथा उत्कृष्टथी ते या अवस्थामां અનંત કાળ પન્ત રહે છે. આ અનંત કાળમાં અનંત ઉત્સર્પિણિયા અને અનંત અવસર્પિણિયા સમાપ્ત થઇ જાય છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી કંઇક ઓછા अर्ध युगस परावर्त उपप्राण समाप्त था जय छे. 'संजयासंजए जहणणेणं अतो उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी' સંયતાસંયત જઘન્યથી એક અતમુહૂત પર્યંન્ત સંયતાસંયત પણાથી રહે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી કઇંક આછા એક પૂર્વ કાટિ પન્ત સંયતાસંયત પણાથી રહે છે. કેમકે-ખાલ્ય કાળમાં संयतासंयत पानी सहूलाव होतो नथी. તેમને 'नो संजय नो असंजय જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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