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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. १० सू. १४५ सर्वजीवानां त्रैविध्यनिरूपणम् १४१५ विशेषणबिहीना एव । 'अणादीया सपज्जवसिया भवसिद्धिया' अनादिकाः सपर्यवसिता भवसिद्धिकाः १ 'अणाइया अपज्जवसिया अभवसिद्धिया' अनादिका अपर्यवसिता अभवसिद्धिका, अभवसिद्धिकोहि - अनाद्यपर्यवसितोऽभवसिद्धिकत्वात् अन्यथाऽभवसिद्धिकत्वाऽयोगादिति । 'साई अपज्जवसिया नो भवसि - द्धिया नो अभवसिद्धिया' साद्यपर्यवसितो नो भवसिद्धिको नो अभवसिद्धिकः, सिद्धस्य संसारक्षयात् प्रादुर्भूतस्य पुनः प्रतिपाताऽसंभवात् । अथाऽन्तरमेतेषामाह - 'तिरहंपि नत्थि अंतरं' त्रयाणामप्यन्तरं नास्ति भवसिद्धिकस्य अनादि सपर्यवसितस्य भवसिद्धिकत्वापगमे पुनर्भवसिद्धिकत्वाऽयोगात्, १ अभवसिद्धिकस्याऽपर्यवसितत्वेन सदा तद्भावापरित्यागात् २ तृतीयसिद्ध जीव नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिक हैं। सिद्धों में संसारातीत होने से न भव्यत्व भाव रहता है और मुक्ति प्राप्त कर लेने से न अभव्यत्व भाव रहता है 'अणाइया सपज्जवसिया' भवसिद्धिक जीव अनादि सपर्यवसित होते हैं और 'अणाइया अपज्जवसिया अभवसिद्धिया' अभवसिद्धिक जीव अनादि अपर्यवसित होते हैं । तथा - 'साई अपज्जबसिया नो भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिक जीव सादि अपर्यवसित होते हैं । इन 'तिष्णंषि नत्थि अंतरं' तीनों प्रकार के जीवों में अन्तर नहीं है । तात्पर्य यह है कि जो भवसिद्धिक अनादि अपर्यवसित होते हैं उनमें पुनः भवसिद्धिकत्व से अपनय हो जाने पर भवसिद्धिकत्व का अभाव रहता है अतः यहां अन्तर का विचार नहीं हुआ है तथा जो अभवसिद्धिक जीव हैं उनमें अनादि अपर्यवसितता विद्यमान रहने ના અભવસિદ્ધિક છે. સિદ્ધો સંસારાતીત હોવાથી તેમાં ભવ્યત્વભાવ હોતા નથી તેમજ મુક્તિ પ્રાપ્ત કરી લેવાથી અભવ્ય ભાવ પણ તેએમાં રહેતા નથી. 'अणाइया सपज्जवसिया भवसिद्धिया' लवसिद्धिल अनाहि सपर्यसित होय छे. मने 'अणाइया अपज्जवसिया अभवसिद्धिया' अलवसिद्धि वो मनाहि पर्यवसित होय छे तथा 'साई अपज्जवसिया नो भवसिद्धिया नो अभवसिद्धिया' ના ભવસિદ્ધિક ને અભવસિદ્ધિક જીવ સાદિ અપર્યવસિત હોય છે. તથા ' तिपि नत्थि अंतरं' मात्र प्रारना वोभां अंतर होतु नथी. मा કથનનું તાપ` એ છે કે-જે ભવસિદ્ધિક અનાદિ સપ વસિત હોય છે. તેઓમાં ફરીથી ભવસિદ્ધિકત્વના અપનય થઇ જવાથી ભવસિદ્ધિકપણાના અભાવ રહે છે. તેથી અહીંયા તેમના અંતરને વિચાર કરવામાં આવેલ નથી. તથા જે અભવસિદ્ધિક જીવ છે. તેમાં અનાદિ અપવસિતપણું વિદ્યમાન રહે જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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