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________________ १३९४ जीवाभिगमसूत्र परियट्ट देसूर्ण' सम्यगमिथ्यादृष्टेः खलु भदन्त ! गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षतोऽनन्तं कालं यावद् देशोनाऽषार्धपुद्गलपरावर्त ततो मुक्तिः। 'अप्पाबहुयं०' एतेषां खलु कतरे कतरेभ्योऽल्पाः ? गौतम ! 'सव्वत्थोवा सम्मामिच्छादिट्ठी-सम्मदिट्ठी अणंतगुणा-मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा' सर्वस्तोकाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः १ सम्यग्दृष्टयो-मिथ्यादृष्टयश्वाऽनन्तगुणाः सम्यग्मिध्याहष्टयपेक्षयाऽनयोरानन्त्यात् इति । 'अहवा-तिविहा सव्वजीवा पन्नता तं जहागया है 'सम्मामिच्छादिहिस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणंत कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियह देसूर्ण' सम्यमिथ्यादृष्टि जीव का अन्तर जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्टसे अनन्तकाल का है यावत् कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्त का है जब सम्यमिथ्यादर्शन से पतित होने के बाद जीव पुनः एक अन्तर्मुहर्त ठहरकर पुन: सम्यग् मिथ्यादर्शन प्राप्त कर लेता है उस अपेक्षा यह जघन्य अन्तर इसका कहा गया है तथा उत्कृष्ट अन्तर के बाद नियम से जीव की मुक्ति हो जाती है। इनके अल्पबहुत्व का विचार'अप्पा बहुयं इनमें 'सव्वत्थोवा सम्मामिच्छादिट्ठी' सब से कम सम्यग्रमिथ्यादृष्टि जीव है 'सम्मदिट्ठी अणंतगुणा' इनकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तगुणें अधिक है । मिच्छादिट्ठी अणंतगुणा' और इनकीअपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणें अधिक हैं। सम्यग्दृष्टियों को जो अनन्तगुणा कहा गया है वह सिद्धों की अपेक्षा से कहा गया है अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं काल जाव अवड्ढ पोग्गलपरियट्ट देसूणं' सभ्य મિથ્યાદષ્ટિ જીવનું અંતર જઘન્યથી એક અંતમુહૂર્તનું છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળનું અંતર છે. યાવત્ કંઈક ઓછું અર્ધ પુગલ પરાવર્તનું હોય છે. જ્યારે સમ્યકૃમિથ્યાદશનથી પતિત થયા પછી જીવ ફરીથી એક અંતહૂર્ત પર્યન્ત રહીને ફરીને સમ્યફમિથ્યાદર્શન પ્રાપ્ત કરી લે છે. એ અપેક્ષાથી આ જઘન્ય અંતર કહેવામાં આવેલ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ અંતર પછી નિયમથી જીવની મુક્તિ થઈ જાય છે. व तेमनी मह५ मपणानी विया२ ४२वामां आवे छे. 'अप्पा बहुयं' तभा 'सव्वत्योवा सम्मामिच्छादिदी' सौथी सोछ। सभ्य मिथ्याटि १ छ 'सम्मादिद्वी अणंतगुणा' मने तेना ४२त सभ्यष्टि १ २मन पधारे छ. 'मिच्छादिट्ठी अणतगुणा' मने तेना ४२i मिथ्यष्टि ०१ मनता વધારે છે. સમ્યફ દૃષ્ટિને જે અનંતગણ કહ્યા છે. તે સિદ્ધોની અપેક્ષાથી જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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