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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. १० सू. १४४ सर्वजीवानां १३९३ ध्य कालतः क्षेत्रतोऽपार्थ पुद्गलपरावर्तम् । मिथ्यादृष्टेः खलु भदन्त ! कियन्तं कालमन्तरम् ? गौतम ! 'मिच्छादिस्सि अणादीयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' मिध्यादृष्टिकाडनादिकाऽपर्यवसितस्य नास्त्यन्तरम् अपरित्यागात् अनादि सपर्यवसितमिध्यादृष्टेर्नास्त्यन्तम् अन्यथाऽनादित्वाऽयोगात् । 'साइयस्स सपज्जवसियस जन्नेणं अंतोमुत्त उक्को सेणं छावहिं सागरोबमाई साइरेगाई' सादि सपर्यवसितस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण षट् पष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि, सम्यग्दर्शनकाल एव मिथ्यादर्शनस्यान्तरम् प्राय: । 'सम्मामिच्छादिट्ठिस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं अणंत्तं कालं जाव अवड पोग्गल - से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक का होता है इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणी काल और अनन्तअवसर्पिणी काल समाप्त हो जाता हैं तथा क्षेत्र की अपेक्षा अर्धपुद्गल परावर्त रूप काल समाप्त हो जाता है 'मिच्छादिट्ठिस्स अणादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं' जो मिथ्यादृष्टि जीव अनादि अपर्यवसित है उसका अन्तर नहीं होता है 'अणादीयस सज्ज - वसियस्स नत्थि अंतरं' तथा जो मिथ्यादृष्टि अनादि सपर्यवसित है उसके भी अन्तर नही होता है परन्तु जो मिथ्यादृष्टि 'साइयस्स सपज्जवसियस्स' सादि सपर्यवसित है उसका अन्तर ' जहन्नेणं अंतोमुहतं उक्को सेणं छावहिं सागरोवमाई साइरेगाई' जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त का होता है और उत्कृष्ट से कुछ अधिक ६६ सागरोपम का होता है । सम्यग्दर्शन काल में ही मिथ्यादर्शन का अन्तर होता है सम्यग्दर्शन का काल जघन्य से और 'उत्कृष्ट से इतना कहा હાય છે. આ અનંતકાળમાં અનંત ઉત્સર્પિણીકાળ અને અનંત અવસર્પિણી કાળ સમાપ્ત થઇ જાય છે. તથા ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અ પુગલ પરાવરૂપ आज समाप्त था लय छे. 'मिच्छादिट्ठिस्स अणादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं' ने मिथ्यादृष्टि लव मनाहि अपर्यवसित छेतेने तर हेतु नथी. 'अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' तथा ने मिथ्यादृष्टि मनाहि सपर्यवसितछेतेने पशु अ ंतर होतु नथी, परंतु ने मिथ्यादृष्टि 'साइयस्स सपज्जवसियस्स' साहि सपर्यवसित छे तेनु तर 'जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावट्ठि सगरोवमाई साइरेगाई' धन्यथी मे अंतरभुहूर्त होय छे. અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક વધારે ૬૬ છાસઠ સાગરોપમનુ હોય છે. સમ્યગ્દર્શન કાળમાંજ મિથ્યાદર્શનનું અ ંતર હાય સમ્યગ્દનના કાળ જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી એટલેાજ કહેવામાં આવેલ છે. 'सम्मामिच्छादिट्ठस्स जहणेणं છે. जी० १७५ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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