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________________ १३९२ जीवाभिगमसूत्रे परित्तीकरणात् इति । 'सम्मामिच्छादिट्ठी जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त सम्य मिध्यादृष्टिर्जघन्योत्कर्षाभ्यामन्तर्मुहूर्तम् सम्यग् मिथ्यादर्शनकालस्य स्वभावत एवैतावन्मात्रस्वात्, नवरं जघन्यादुत्कृष्टपदमधिकं ज्ञातव्यम् । सम्मदिहिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' सम्यग्दृष्टेरन्तरम् साद्यपर्यवसित सम्यग्टष्टेरन्तरं नास्ति अपर्यवसितत्वात् 'सादीयस्स सपज्जवसियस्स जहणेणं अंतोमुहुत्त' उक्कोसेणं अनंत कालं जाव आवडू पोग्गल परियहं सादिसपर्यवसितस्य जघन्येनामुहूर्तम् उत्कर्षेणानन्त कालम् अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः ऐसे जीव को इतने काल के बाद पुनः अवश्य ही सम्यग्दर्शन का लाभ हो जाता है । क्योंकि ऐसे जीव का पूर्व प्रतिपन्न सम्यक्त्व के प्रभाव से संसार मर्यादित हो जाता है । 'सम्मामिच्छादिट्ठी जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं अंतोमुहुत्तं' सम्यग् मिथ्यादृष्टि जीव जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से भी एक अन्तर्मुहूर्त तक सम्यगमिथ्या दृष्टि रूप से रहता है परन्तु उत्कृष्ट का जो अन्तर्मुहूर्त है वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त से बडा है अन्तर कथन -' सम्मदिट्ठिस्स अंतरं साइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' सादि अपर्यवसित सम्यग्दृष्टि का अन्तर अपर्यवसित होने के कारण नहीं होता है 'सादीयस्स सपज्जवसियस्स जह० अंतोमु० उक्को० अनंत कालं जाव अव पोग्गलपरियह' जो सम्यग्दृष्टि जीव सादि सपर्यवसित होता है उसका अन्तर जघन्य શ્યજ સમ્યગ્દનના લાભ થઈ જાય છે. કેમ કે એવા જીવને પૂર્વ પ્રાપ્ત થયેલ સમ્યક્ત્વના પ્રભાવથી સંસાર મર્યાદિત થઇ જાય છે. 'सम्मामिच्छादिट्ठी जहणेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अतोमुहुत्तं' सभ्यग् મિથ્યાદષ્ટિ જીવ જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂત પન્ત અને ઉત્કૃષ્ટથી પણ એકજ અંત`હૂ સુધી સભ્યમિથ્યાદષ્ટિ પણાથી રહે છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટનું જે અંતર્મુહૂત છે. તે જઘન્ય અંતર્મુહૂત થી મેટું છે. અંતરદ્વારનુ` કથન– 'सम्मदिट्टिस्स अंतरं साइयस्स वसित सम्यग्दृष्टि कवने अंतर यस्स सपज्जवसियम्स जहणणेणं अंतो पोग्गलपरियट्टे' ? सभ्यग्दृष्टि व साहि જઘન્યથી એક અંતર્મુહૂર્તનું હોય છે. अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' साहि व्यर्थ - अपर्यवसित होवाथी होतु नथी. 'सादीमुहुत्त उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव अपढौं सपर्यवसित होय छे. तेनु' अंतर અને ઉત્કૃષ્ટથી અનંતકાળ સુધીનુ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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