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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१४३ प्रकारान्तरेण सर्वजीवानां वैविध्यम् १३८३ जहा सिद्धा' सशरीराः - शरीरवन्तोऽशरीराश्च-कार्मण शरीरहीनाः सिद्धास्ते सिद्धसूत्रवज्ज्ञेयाः । अल्पबहुत्वसूत्रे -'थोवा असरीरी' सर्वस्तोका अशरीराः 'सरीरी अणंतगुणा' सशरीरा अनन्तगुणा अशरीराऽपेक्षया भवन्ति । 'अहवा दुविहा सव्वजीवा पन्नत्ता' अथवा द्वि प्रकारकाः सर्वजीवाः प्रज्ञप्ताः 'तं जहा-चरिमाचेव अचरिमाचेव' चरमा अन्तिम भववन्तो भव्यविशेषाः येऽनुपदं सिद्धि प्राप्स्यन्ति अचरिमा अनेक भववन्तोऽभव्याः सिद्धथै यतमाना अपि न जाने कदा सिद्धिं गन्तारः। 'चरमेणं भंते ! चरमेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ! गोयमा! चरिमे अणाईए सपका नाम सशरीर और सिद्ध का नाम अशरीर है अतः इसके सम्बधि का कथन सिद्ध और असिद्ध के सूत्रों के जैसा ही है। इनके अल्पबहुत्व का कथन इस प्रकार से है-थोवा असरीरी' अशरीर सिद्ध जीव-कार्मण शरीर हीन जीव-सब से कम है । 'ससरीरी अणंतगुणा' और इनका अपेक्षा सशरीर जीव अनन्तगुणें अधिक है। 'अहवा दुविहा सव्ध जीवा पण्णत्ता' अथवा-समस्त जीव इस प्रकार से भी दो प्रकार के हैं-'तं जहा' जैसे-'चरिमा चेव अचरिमा चेव' चरम अन्तिम भव विशेष वाले ऐसे भव्य जीव और अचरम अनेक भवों वाले-अभव्य जीव इनमें जो नियम से मुक्ति को प्राप्त करने वाले होते हैं वे चरम शब्द से और जो सिद्धि के लिये प्रयत्न करने पर भी सिद्धि प्राप्ति से वंचित रहते हैं वे अचरम शब्द से व्यवहृत हए हैं। 'चरमेणं भंते ! चरमेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! चरग जीव चरमरूप से कब तक रहता है ? इसके उत्तर में प्रभु અને સિદ્ધોને અશરીર કહેવામાં આવે છે. તેથી તેમના સંબંધમાં આ પ્રમાણે थन ४२वामां मावेस छ. 'थोवा असरीरी' सशरीश सिद्ध - शरीर २हित ३ सौथी सोछ। छे. 'ससरीरी अणंतगुणा' मने तेना ४२di सशरीरी मन । धारे छ. 'अहवा दुविहा सव्व जीवा पण्णत्ता' अथवा सा छ। २॥ प्रमाणे ५५४ मे प्रा२॥ छ त जहा' म - 'चरिमा चेव अचरिमा चेव' य२म छेद। अपविशेष वा सेवा सय ७॥ અને અચરમ અનેક ભોવાળા–અભવ્ય જીવ તેમાં જેઓ નિયમથી મુક્તિને પ્રાપ્ત કરવા વાળા હોય છે. તેઓ ચરમ શબ્દથી અને જેઓ સિદ્ધિને માટે પ્રયત્ન કરવા છતાં પણ સિદ્ધિની પ્રાપ્તિથી વંચિત રહે છે. તેઓ અચરમ शपथी व्यपाहत थये। छ. 'चरमेणं भंते ! चरमेत्ति कालओ केवच्चिरं होई' है ભગવન ! ચરમ જીવ ચરણ પણાથી કેટલે કાળ રહે છે ? આ પ્રશ્નના જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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