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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. १० सू. १४१ प्रकारान्तरेण सर्वजीवानां द्वैविध्यम् १३४३ खलु भदन्त ! कियन्तं कालमन्तरं प्रश्नः ? गौतम ! सवेदक स्त्रिविधः अनादिरपर्यवसितः १ अनादिः सपर्यवसितः २ सादिः सपर्यवसितश्च ३ तत्र योऽनादिपर्यवसितस्तस्य 'अणादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं' अनाद्यपर्यवसित सवेदकस्य नास्त्यन्तरम् अपर्यवसिततया सदा तद्भावापरित्यागात् । 'अणादीयस सपज्जवसियस नस्थि अंतरं' अनादि सपर्यवसित द्वितीय सवेदकस्याऽपि - नास्त्यन्तम् अनादि सपर्यवसितोहि अपान्तराले उपशम श्रेणीमप्रतिपद्य भावी क्षीणवेदो न च क्षीणवेदस्य पुनः सवेदकत्वं सम्भवति प्रतिपाताऽभावादिति । होइ' हे भदन्त ! सवेदक जीव का अन्तर कितने काल का होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम सवेदक जीव तीन प्रकार का है - एक अनादि अपर्यवसित, दूसरा अनादि सपर्यवसित, और तीसरा सादि सपर्यवसित इनमें 'अणादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं जो अनादि अपर्यवसित सवेदक जीव हैं उसके अन्तर होता ही नहीं है। क्योकि अपर्यवसितता में सादिता नहीं आ सकती है वेद की सादिता के अभाव में पुनः उसकी प्राप्ति का होना बनता नहीं है अतः इस विकल्प में अन्तर का अभाव कहा गया है । 'अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' जो सवेदक अनादि सपर्यवसित है उस के भी अन्तर नहीं है क्योंकि ऐसा सवेदक जीव उपशमश्रेणि को प्राप्त नहीं करके भावी क्षीण वेद वाला होता हैं । क्षीण वेदकता में पुनः जो सवेदकता नहीं होती हैं उसका कारण प्रतिपात का अभाव અંતર કાળનું કથન 'सवेदकस्स णं भंते! केवइयं काल अंतरं होई' हे भगवन् सवेदृ५ भवनु અંતર કેટલા કાળનુ હાય છે? તેના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે- ગૌતમ ! સવેદક જીવ ત્રણ પ્રકારના હેાય છે. એક અનાદિ અપ વસિત; ખીજા અનાદિ सपर्यवसित मनेत्री साहि सपर्यवसित तेमां 'अणादीयस्स अपज्जवसियास नत्थि अंतरं' ने मनाहि अपर्यवसित सवे व छे, तेयाने अ ंतर होतु નથી કેમકે અપવસિતપણામાં સાદિપણું આવી શકતુ નથી વેદના સાદિ પણાના અભાવમાં ફરીથી તેની પ્રાપ્તિ થવાનું બનતુ ંજ નથી. તેથી આ વિકલ્પ भां अंतरने अलाव हेवामां आवे छे. 'अणादीयस्स सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं' ने सवेह मनाहि सपर्यवसित छे, तेने पशु अंतर होतु नथी भ એવા સર્વેક જીવ ઉપશમ શ્રેણીને પ્રાપ્ત કર્યાં વિના ભાવી ક્ષીણ વેદવાળા થઈ જાય છે. ક્ષીણ વેદકપણામાં ફરીથી જે સવેદક પણુ' હાતુ નથી. તેનું કારણ પ્રતિપાતના અભાવ છે. સાદિક સપ વસિત સવેદકનું અંતર જધન્યથી એક જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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