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________________ १३४४ जीवाभिगमसूत्रे 'सादीयस्स सपज्जवसियस्स जहन्नेणं एक्कं समयं सादिकसपर्यवसिततृतीयवेदकस्य जघन्येनैकं समयमन्तरम्, द्वितीयवारमुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य कस्यापि उपशमसमयानन्तरं मरणसम्भवात् । 'उकोसेणं अंतोमुहुतं' उत्कर्षेणान्तर्मुहूर्तमन्तरम् सादि सपर्यवसित वेदकस्य द्वितीयवारमुपशमश्रेणिं प्रतिपन्नोपशान्तवेदस्य श्रेणि समाप्ते पुनः सवेदकत्वसम्भवात् । 'अवेयगस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई' कियन्तं कालमवेदकस्य खलु भदन्त ! भवत्यन्तरम् ? भगवानाह - गौतम ! 'साईयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं' सादिकाऽपर्यवसिताऽवेदकस्य नास्त्यन्तरम् क्षोणवेदस्य पुनरपि है सादिक सपर्यवसित सवेदक का अन्तर जघन्य से एक समय का है ऐसा यह अन्तर द्वितीयबार उपशमश्रेणि पर आरूढ होकर पुन: वहां से पतित होकर सवेदक अवस्था को प्राप्त करने वाले जीव की अपेक्षा से कहा गया है । 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' तथा उत्कृष्ट से अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त्त का है । यह उत्कृष्ट अन्तर जो सादि सपर्यवसित अवेदक जीव द्वितीय बार उशमश्रेणि की प्राप्ति करने से उपशान्त वेद वाला हो गया है और श्रेणि से एक अन्तर्मुहुर्त तक वहां स्थित होकर फिर पतित हो गया है । एवं पुनः सवेद अवस्था वाला वन गया है उसकी अपेक्षा से कहा गया है । 'अवेद्गस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई' हे भदन्त ! अवेदक जीव का अन्तर कितने काल का है ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा 'गोयमा ! सादीयस्स अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं' हे गौतम ! सादिक अपर्यवसित अवेदक का अन्तर नहीं होता है । क्योंकि ऐसा जीव क्षीण वेदवाला સમયનું છે એવું આ અંતર ખીજી વાર ઉપશમ શ્રેણી પર આરૂઢ થઇને ત્યાંથી પતિત થઈ સવેદક અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરવાવાળા જીવની અપેક્ષાથી કહે. वामां यावेस छे. 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' उत्कृष्टथी से अंतर्मुहूर्त अ ंतर છે. આ ઉત્કૃષ્ટ અંતર જે સાપ્તિ સપસિત અવેદક જીવ ખીજી વાર ઉપશમ શ્રેણીની પ્રાપ્તિ કરવાથી ઉપશાંત વેઢવાળા થઇ ગયેલા હાય અને શ્રેણીથી એક અંતર્મુહૂત પન્ત ત્યાં સ્થિર રહીને તે પછી પતિત થઇ ગયેલ હાય અને ફરીથી વેદક અવસ્થાવાળા બની ગયેલ હાય તેની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ छे. 'अवेद्गरसणं भंते! केवइयं कालं अंतरं होई' हे भगवन् भवे भवतु अ ंतर डेंटला अजनु अह्यु छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री अछे - 'गोयमा ! सादीयस अपज्जवसियस्स णत्थि अंतरं' हे गौतम! साहि अपर्यवसित अवेદેકનું અંતર હાતુ નથી. કેમકે એવા જીવ ક્ષીણુ વેદ વાળા હાય છે. તેથી તેમાં જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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