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________________ १२९४ जीवाभिगमसूत्रे 'अपढमसमय तिरिक्ख जोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं समयाहियं' अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्येन समयाधिकक्षुल्लकभवग्रहणम् । तत्तु-तिर्यग्योनिकक्षुल्लक भवग्रहण चरमस्याऽधिकृताऽप्रथमसमयत्वात् तत्र मृतस्य मनुष्य क्षुल्लकभवग्रहणेन व्यवधाने सति तिर्यक्त्वेनोत्पद्यमानस्य प्रथमसमयातिक्रमे ज्ञातव्यम् अप्रथमसमयान्तरस्यैतावन्मात्रत्वादिति । 'उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं साइरेगे' उत्कर्षेण सागरोपमशतपृथक्त्वं सातिरेकम् देवादिभवानामेतावत्कालत्वात् । 'पढमसमयमणूसस्स जहण्णेणं दो खुड्डागं भवग्गहणाई समऊणाई समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव हो जाता है । 'अपढम समयतिरिक्खजाणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं' अप्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव का अन्तर जघन्य से एक समय अधिक क्षुल्लक भवग्रहण रूप है और 'उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं' उत्कृष्ट से सगरोपमशत पृथक्त्व रूप है इसका तात्पर्य ऐसा है कि तिर्यग्योनिक जीव का जो क्षुल्लकभव के ग्रहण करने का चरमसमय है वह अप्रथम समयरूप है इस अप्रथम समय में मृत हुआ वह जीव मनुष्य का क्षुल्लक भव ग्रहण करने रूप व्यवधान से व्यवहित हो जाता है फिर वह पुनः अप्रथम समयवर्ती तिर्यक रूप से उत्पन्न हो जाता है अर्थात् अप्रथम समयवर्ती कोई तिर्यग्योनिक जीव मर कर मनुष्य के क्षुल्लक भव को धारण करने वाला हो गया और फिर वह वहां से भी मर कर पुनः अपनी पूर्व की स्थिति में आ गया तो इस परिस्थिति में उसे अपनी पूर्वस्थिति प्राप्त करने में एक સમાસ કરીને તે મનુષ્યભવ ધારણ કરીને ફરીથી ત્યાંથી પ્રથમ સમય વતી तिय-योनि ७१ ७ लय छे. 'अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहणेणं खुड्डागं भवग्हणं समयाहियं' प्रथमसमयवती तिय योनि पर्नु मत२ धन्यथी मेट समय अघि क्षुदस भव घड ३५ छ. अने 'उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं' अष्टथी सा॥२।५म शत पृथ५५ ३५ छ. ॥ ४थननु તાત્પર્ય એવું છે કે-તિર્યોનિક જીવને ક્ષુલ્લક ભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ જે ચરમ સમય છે, તે અપ્રથમ સમય રૂપ છે. આ અપ્રથમ સમયમાં મરેલ તે જીવ મનુષ્યના ક્ષુલ્લક ભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ વ્યવધાનથી વ્યવહિત-વ્યવધાન વળે થઈ જાય છે. તે પછી તે ફરીથી અપ્રથમ સમયવતી તિર્યાનિક પણાથી ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અર્થાતુ અપ્રથમ સમયવતી કઈ તિનિક જીવ મરીને મનુષ્યના ક્ષુલ્લક ભવને ધારણ કરવાવાળે થઈ જાય છે અને તે પછી તે ત્યાંથી પણ મરીને ફરીથી તે પિતાની પહેલાની સ્થિતિમાં આવી જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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