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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.७ सू.१३७ अष्टविध सं० स० जीवनिरूपणम् १२९५ प्रथमसमयमनुष्यस्यान्तरं द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे समयोने 'उक्कोसेणं वणस्सइका'लो उत्कर्षेण वनस्पतिकालः, तिर्यसूत्रवदत्र भावना कार्या । 'अपढमसमयमणूसस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं' अप्रथमसमयमनुष्यस्य जघन्येन समयाधिकं क्षुल्लकं भवग्रहणम् । 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' उत्कर्षेण वनस्पतिकालः । समय अधिक जो मनुष्य भव का क्षुल्लक भव है उसका व्यवधान होने से यह अप्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक जीव को एक समयाधिक क्षुल्लक भव ग्रहण करने रूप ब्यवधान होता है। यह व्यवधान ही उसका अन्तर है क्योंकि अप्रथम समय का प्रमाण इतना ही होता है । उत्कृष्ट से जो अन्तर कहा गया है वह देवादिकों के भव ग्रहण करने रूप व्यवधान से व्यवहित हुए जीव की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि देवादिक भवों का काल इतने प्रमाण वाला होता है। मनुष्य भव के अन्तर की वक्तव्यता-प्रथम समयवर्ती मनुष्य. योनिक जीव की और अप्रथम समयवर्ती मनुष्ययोनिक जीव की अन्तर वक्तव्यता-'तिर्यग्योनिक जीव के अन्तर की वक्तव्यता जैसी ही है परन्तु यहां पर व्यवधान तिर्यञ्चगति के क्षुल्लक भवग्रहण करने से कहना चाहिये यही वात 'पढमसमय मणुस्सस्स जहन्नेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई उक्कोसेणं वणस्सइकालो' इस सूत्र द्वारा प्रकट की गई है । 'अपढमसमयमणुस्सस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं' अप्रथमसमयवर्ती मनुष्य का अन्तर जघन्य જાય તે આ પરિસ્થિતિમાં તેને ફરીથી પિતાની પહેલાની સ્થિતિ પ્રાપ્ત કર. વામાં એક સમય અધિક જે મનુષ્ય ભવને ક્ષુલ્લક ભવ ગ્રહણ કરવા રૂપ વ્યવધાન થાય છે, એ વ્યવધાન જ તેનું અંતર છે. કેમકે–અપ્રથમ સમયનું પ્રમાણ એટલું જ હોય છે. ઉત્કૃષ્ટથી જે અંતર કહ્યું છે, તે દેવાદિકોના ભાવ ગ્રહણ કરવા રૂપ વ્યવધાનથી વ્યવધાન વાળા થયેલ જીવની અપેક્ષાથી કહેવામાં આવેલ છે કેમકે–દેવાદિક ભવને કાળ એટલા પ્રમાણુવાળ હોય છે. મનુષ્ય ભવના અંતરનું કથન પ્રથમ સમયવતી મનુષ્યનિક જીવના અને અપ્રથમ સમયવતી મનુષ્યનિક જીવના અંતરનું કથન તિર્યનિક જીવના અંતરના કથન प्रभारी ४ छ. मे पात 'पढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं दो खुड्डाई भवग्गहणाई समऊणाई उक्कोसेण वणस्सइकालो' मा सूत्र द्वारा प्रगट ४२ छे. 'अपढमसमयमणुस्सस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गणं समयाहियं' मप्रथम सभयती જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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