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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.७ सू.१३७ अष्टविध सं० स० जीवनिरूपणम् १२८९ एक्कं समयं' प्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्येन उत्कर्षेण चैकं समयम् । 'अपढमसमयतिरिक्ख जोणियस्स जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं' उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समऊणाई' अप्रथमसमयतिर्यग्योनिकस्य जघन्येन समयोन क्षुल्लकं भवग्रहणम् उत्कर्षेण समयोन त्रिपल्योपमानि । 'एवं मणुस्साण वि जहा तिरिक्खजोणियाणं' यथा तिर्यग्योनिकाणामेवं मनुष्याणामपि । 'देवाणं जहा नेरइयाणं' देव-नैरिकयोर्यथायथम् । 'नेरइय देवाणं जच्चेव ठिइ सच्चेव संचिट्ठणा दुविहाण वि' नैरयिकदेवयोयवस्थितिः सैव संस्थितिः द्विविधयोरपि, द्वयोरपि समयं उकोसेणं एक्कं समयं प्रथमसमयवती तिर्यग्योनिक की जघन्यस्थिति एक समय की है और उत्कृष्ट स्थिति भी एक समय की है 'अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जह. खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समऊणाई' अप्रथम समयवर्ती तिर्यग्योनिक की स्थिति जघन्य से एक समय कम क्षुल्लकभव ग्रहण रूप है और उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम तीन पल्योपम रूप है। सबसे छोटा क्षुल्लक भव २५६ आवलिका का होता हैं। 'एवं मणुस्साण वि जहा तिरिक्खजोणियाणं' इसी प्रकार की स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट से मनुष्यां की भी है। 'देवाणं जहा रइयाणं ठिई नैरयिकों की जैसी स्थिति देवों की है । 'णेरइयदेवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा दुविहाण वि' प्रथम समयवर्ती नैरयिक और अप्रथम समयवर्ती नैरयिक तथा प्रथम समयवर्ती देव और अप्रथम समयवर्ती देव इन दोनों में जो भव स्थिति है वही कायस्थिति है क्योंकि સ્થિતિ એક સમયની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પણ એકજ સમયની છે. 'अपढमसमयतिरिक्खजोणियस्स जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समऊणं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं समऊणाई' मप्रथमसभयती तिर्यस्यानिनी स्थिति જઘન્યથી એક સમય કમ ક્ષુલ્લક ભવગ્રહણ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સમય કમ ત્રણ પલ્યોપમ રૂપ છે. સૌથી નાને મુલકભવ ૨૫૬ બસો છપન मासिनी हाय छ, 'एवं मणुस्साण वि जहा तिरिक्खजोणियाणं' मेन प्रभागेनी स्थिति धन्य भने उत्कृष्टथी मनुष्योनी ५५ छ. 'देवाणं जहा नेरइयाणं ठिई' नैयिछानी २ प्रमाणे स्थिति ही छ मेरी प्रमाणे वानी स्थिति छ. 'णेरइयदेवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा दुविहाण वि' प्रथम સમયવતિ નૈરયિક તથા પ્રથમ સમયવતિ દેવ અને અપ્રથમ સમયવતિ નરયિક અને અપ્રથમ સમયવતિ દેવ એ બન્નેની જે ભાવસ્થિતિ છે. એ જ પ્રમાણે તેમની કાયસ્થિતિ છે. કેમકે દેવ અને નૈરયિક એ બને એજ ભવપણાથી जी० १६२ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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