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________________ १२६० जीवाभिगमसूत्रे निगोदा असंख्याताः नो संख्याता नो अनन्ता उक्तयुक्तेः। 'एवं वायरा वि पज्जगावि अपज्जत्तगावि नो संखेज्जा असंखेज्जा नो अणंता' एवं वादर निगोदा अपि द्रव्यार्थतया पर्याप्तका अपि अपर्याप्तका अपि नो संख्याताः नो अनन्ताः किन्तु असंख्याता आलाप ऊहनीयः । संप्रति द्रव्यार्थतया निगोदजीवसंख्यां ज्ञातुमाह-'निओयजीवाणं भंते ! दवट्ठयाए कि संखेज्जा असंखेज्जा अणता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता' निगोदजीवाः खलु भदन्त ! द्रव्यार्थतया किं संख्याताः असंख्याता अनन्ता वा ? भगवानाह-गौतम ! नो संख्याताः नो असंख्याताः किन्तु अनन्ताः प्रतिनिगोदमनन्तानां निगोदद्रव्यजीवानां भावात् इति । 'एवं पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि एवं पर्याप्तका अपर्याप्तका अपि निगोदजीवा द्रव्यार्थतयाऽनन्ता एव, पर्याप्तक भी और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक भी असंख्यात ही हैं संख्यात या अनन्त नहीं हैं । 'एवं सुहुम णिओय जीवा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' इसी तरह से सूक्ष्म निगोद जीव भी हैं और इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद भी असंख्यात ही हैं संख्यात या अनन्त नहीं हैं। 'बायरणिओदजीवा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' इसी प्रकार से बादर निगोद जीव और उनके भेद रूप पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद भी असंख्यात ही हैं। संख्यात या अनन्त नहीं हैं । 'णिओदाणं भंते ! पएसट्टयाए किं संखेज्जा, असंखेज्जा अणंता ?' हे भदन्त निगोद क्या प्रदेशों की दृष्टि से क्या संख्यात हैं ? या असंख्यात हैं ? या अनन्त हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता' हे गौतम ! निगोद प्रदेशों की दृष्टि से न संख्यात हैं, न असंख्यात हैं, किन्तु अनन्त पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' मे०४ प्रमाणे सूक्ष्म निगाह पर्यात अने सूक्ष्म निगाई २५५र्यात४ ५ २मसभ्यात छ. सण्यात मानत नथी. 'एवं सहमणिओयजीवा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' मे प्रमाणे सूक्ष्म નિગોદ છે પણ સમજવા. અને તેના પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તક ભેદો પણ असभ्यात छ. सध्यात मानत नथी. 'बायर णिओदजीवा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' मे०४ प्रमाणे मा६२ निगाह ७१ मने तेना मे રૂપ પર્યાપક અને અપર્યાપક ભેદો પણ અસંખ્યાતજ છે. સંખ્યાત કે અનંત नथी. 'णिओदाणं भंते ! पएसठ्ठयाए किं संखेज्जा, असंखेज्जा, अणंता' हे भगवन् નિગદ પ્રદેશની દષ્ટિથી શું સંખ્યાત છે? અથવા અસંખ્યાત છે? કે અનંત જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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