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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.५ सू.१३५ सामान्यतो निगोदस्वरूपनिरूपणम् १२६१ किन्तु नो संख्येयाः नो संख्येया वा ज्ञेयाः। एवं सुहुमणिमओय जीवा वि पज्जत्तया वि अपज्जत्तया वि' एवं पर्याप्तका अपि अपर्याप्तका अपि सूक्ष्मनिगोदजीवा द्रव्यार्थतयाऽनन्ता एव, नो संख्ये या न वाऽसंख्येया बोद्धव्याः । 'बायरनिओय जीवा वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्ता वि' एवं सामान्य बादरनिगोदवत् पर्याप्तका अपर्याप्तका अपि बादरनिगोदजीवा संख्येयाऽसंख्येयहीना अनन्ता ज्ञेयाः। संप्रति प्रदेशतया नवसूत्रेषु निगोदसूत्रत्रयमाह-'निओया णं भंते ! पएसट्टयाए कि संखेज्जा० पुच्छा ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणता, एवं पज्जत्तया वि अपज्जत्तया वि। एवं मुहुम णिओया वि पज्जत्तया वि अपज्जत्तया वि य पएसट्टयाए सव्वे अणंता' निगोदाः खलु भदन्त ! कि संख्येया असंख्येया अनंतावेति प्रश्नः प्रदेशार्थतया ? भगवानाह-गौतम ! अनन्ता एवं न संख्येया असंख्यया भवन्ति । एवं पर्याप्तका अपि अपर्याप्तका अपि निगोदाः प्रदेशार्थतयाऽनन्ताः संख्येयाऽसंख्येया नेति संक्षेपः 'एवं सामान्यनिगोदवत्सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ताश्चापि अपर्याप्ताश्चापि संख्येयाऽसंख्येयहीना अनन्ता भवन्ति । किं बहुना-प्रदेशार्थतया सामान्यतो निगोदाः सूक्ष्मनिगोदाः पर्याप्ता अपर्याप्ताः सर्वे साकल्येन अनन्ताः न तु संख्येया असंख्येयावेति निष्कर्षः। 'एवं बायरनिओया वि पज्जत्तया वि अपज्जत्तया वि' एवं 'एवं पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' इसी प्रकार के इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद रूप जो निगोद हैं वे भी हैं अर्थात् ये पर्याप्तक और अपर्याप्तक निगोद प्रदेशों की अपेक्षा अनन्त ही हैं संख्यात या असं. ख्यात नहीं हैं। 'एवं सुहुम णिओया वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' इसी तरह से सूक्ष्म निगोद भी और उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद भी प्रदेशों की दृष्टि से अनन्त ही हैं संख्यात या असंख्यात नहीं हैं। 'एवं बायर निगोया वि पज्जत्तया वि अप्पज्जत्तया वि' पएसटयाए सव्वे अणंता' इसी प्रकार के बादर निगोद भी और उनके पर्यातक अपर्याप्तक भेद भी प्रदेशों की दृष्टि से अनन्त ही है संख्यात या है? ॥ प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४ छ -'गोयमा ! नो सखेज्जा, नो औसखेज्जा, अणंता' है गौतम ! निगा। प्रशानी थी सध्यात नथी तमन्न सस यात ५९४ नथी. ५९ मत छे. 'एवं पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' એજ પ્રમાણે તેમના પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તકના ભેદ રૂપ જે નિગોદ છે તે પણ સમજવા. અથૉત્ આ પયોહક અને અપસક નિગોદ પ્રદેશોની દષ્ટિથી मन त छ, सध्यात ॐ असण्यात डात नथी. 'एवं सुहुम णिओया वि पज्जत्तगा वि अपज्जत्तगा वि' मे प्रमाणे सूक्ष्म निगाह ५मने तना જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006345
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1580
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size84 MB
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