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________________ ७८२ जीवाभिगमसूत्रे चउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता' देशोन-देशपरिहीणं चतुर्भागपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता। 'अट्टो जो चेव चमरस्स' अर्थों य एव चमरस्य । अयं भावा-'से केण टेणं भंते ! एवं वुच्चइ, कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो तो परिसाओ पण्णत्ताओ त जहा-ईसातुडिया दढाहा, अभंतरिया ईसा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया दढरहा' इत्यादिकं प्रश्नोत्तरादिकं सर्व चमरप्रकरणवदेवात्र ज्ञातव्यम् । विशेषस्त्वयं यदत्र चमरस्थाने कालनामोच्चारणीयम् । 'एवं उत्तरस्स वि' एवं दाक्षिणात्य पिशावदेववदेव उत्तरपिशाचदेवस्यापि वक्तव्यता भणितव्या तथाहि-'कहि गं भंते ! उत्तरिल्लाणं पिसायाणं भोमेज्जा णगरा पन्नत्ता, कहि, है और वाह्यपरिषदा की देवियों की स्थिति देश ऊन-एकदेशकम चतु. भांगपल्योपम की कही गई है 'अट्ठो जो चेव चमरस्स' अर्थ चमरेन्द्र का है वही समझ लेना चाहिए जैसे 'हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते है कि काल की ये तीन इशा त्रुटिता और दृढरथा नामकी सभाएं है ? इन में ईशा का नाम आभ्यन्तरिका त्रुटिता का नाम मध्य. (मका और दृढरथा का नाम बाह्या सभा है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । हे गौतम ! इस सम्बन्ध में समस्त कथन तथा और भी प्रश्नों का उत्तर चमरेन्द्र के प्रकरण में जैसा कहा जा चुका है-वैसा ही जान लेना चाहिये। अन्तर इतना ही है कि चमर के स्थान पर कालका नाम उच्चारण कर लेना चाहिये 'एवं उत्तरस्स वि' जैसी यह पूर्वोक्त. रूप से वक्तव्यता दाक्षिणात्यपिशाचकुमार देवों की कही गई है-ठीक वैसी ही वक्तव्यता उत्तरदिग्वती पिशाचकुमार देवों की भी है ऐसा जानना चाहिये जैसे-'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं पिसायाणं भोमेजा ચતુર્ભાગ પલ્યોપમની છે. અને બાહ્ય પરિષદાની દેવિયેની સ્થિતિ દેશઉન એક हेश भ. या पक्ष्या५मनी उस छ 'अट्ठो जो चेव चमरस्स' विशेष ४थन ચમરના કથન પ્રમાણે સમજી લેવું જેમકે હે ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે કાલની ઈશા, ત્રુટિતા અને દઢરથા નામની ત્રણ સભાએ છે? અને તેમાં ઈશાનું નામ આભ્યન્તરિકા, ત્રુટિતાનું નામ મધ્યમિકા, અને દઢરથાનુ નામ બાહ્ય સભા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ! આ વિષયમાં તમામ કથન તથા તેથી પણ વધારેના પ્રશ્નોના ઉત્તર અમરેન્દ્રના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણે અહિં પણ સમજવા અન્તર એટલું ४ छ है मायां यमरेन्द्रना स्थाने असे न्द्रतुं नाम नये एवं उत्तरस्स वि'२ प्रभानु म! 6५२।४ शतनु थन दक्षिण शिना पिशायभार દેના સંબંધમાં કહેવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન ઉત્તર દિશાના જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006344
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages918
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size46 MB
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