SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०२ जीवाभिगमसूत्रे उद्धृत्य द्वितीयां शर्कराप्रभापृथिवीं गच्छन्ति, उरः परिसर्पाः नरके पञ्चमी पृथिवी गच्छन्ति, भुजपरिसास्तु नरके द्वितीयामेव पृथिवीं गच्छन्ति इत्यनयो भेदः । अन्यत्सर्व भुजपरिसणामुरःपरिसर्पवदेव भवतीति । भुजपरिसर्पप्रकरणमुपसंहरन्नाह-'सेतं भुयपरिसप्पा पन्नत्ता' ते एते भुजपरिसर्पाः भेदप्रभेदाभ्यां प्रज्ञप्ताः-प्ररूपिता इति । स्थलचरमुपसंहरन्नाह--'से तं थलयरा' ते एते स्थलचराः भेदप्रभेदाभ्यां निरूपिता इति ॥सू० २४॥ गर्भव्युत्क्रान्तिकान् जलचरान् स्थलचरांश्च निरूप्य सम्प्रति-गर्भव्युत्क्रान्तिकान् खेचरान् निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह-'से किं तं खहयरा' इत्यादि, मूलम्-'से कि तं खहयरा ? खहयरा चउन्विहा पन्नत्ता तं जहाचम्मपक्खी, तहेव भेदो, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहत्तं । ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्त-उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागो ! सेसं जहा जलयराणं । नवरं जाव तच्चं पुढविं गच्छंति जाव से तं खहयरा गब्भबक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणिया। से तं तिरिक्खजोणिया सू० २५॥ पर्याय को जब छोडते हैं और जब नरकों में जाते हैं तो ये द्वितीय जो शर्करा पृथिवी है वहीं तक जाते हैं आगे नहीं जाते हैं। उरः परिसर्पतो पञ्चमी पृथिवी तक जाते हैं । इस प्रकार इन दोनों में केवल नरक गति में जाने की अपेक्षा-भिन्नता है और सब प्रकरण उरःपरिसपों के जैसा हो है इस प्रकार से “से तं भुयपरिसप्पा पन्नत्ता' यहां तक का यह प्रकरण भुज परिसों का उनके भेद प्रभेदों को लेकर कहा है । “से तं थलयरा” इस प्रकरण की समाप्ति होते ही स्थलचर जीवों का उनके भेद प्रभेदों सहित वह प्रकरण समाप्त हो जाता है।सू०२४॥ છોડે છે, અને જ્યારે નારકમાં જાય છે, તે તેઓ બીજી જે શર્કરા પૃથવી છે, ત્યાંના નારકોમાં જાય છે, તેથી આગળ જતા નથી. ઉર પરિસર્પો તે પાંચમી પૃથ્વી સુધી જાય છે. આ રીતે આ બન્નેના કથનમાં કેવળ નરકગતિમાં જવાની બાબતમાં જુદા પણું કહેલ छ. माडीनु तमाम थन 6:परिसीना ४थन प्रमाणे १ छे. माशत "से तं भुयपरिसप्पा पण्णत्ता' मा ४थन सुधीनुमा ५४२ मु०४परिसना से प्रसाह सहित हेर छे. "सेत्त थलयरा' 41 प्रमाणे स्थायर खाना ले। मन प्रमेह सहितनु तमना सધનું આ પ્રકરણ સમાપ્ત થયું. સૂ૦ ૨૪ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy