SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ जीवाभिगमसूत्रे आहारेंति मज्झेवि आहारेंति पज्जवसाणे वि आहारेंति' आदावपि-उपभोगोपचितकालस्यअन्तर्मुहूर्तप्रमाणस्य आदावपि--समये आहरन्ति । मध्येऽपि मध्यसमयेऽपि आहरन्ति । पर्यवसानेऽपिउपभोगोपचितकालस्यान्तर्मुहूर्त-प्रमाणस्यान्तिमसमयेऽपि आहरन्तीति भावः । 'ताई भंते ! किं सविसए आहारति अविसए आहारैति' यानि भदन्त ! आदावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽपि आहरन्ति, तानि भदन्त ! किं स्वविषयाणि-स्वोचिताहारयोग्यानि आहरन्ति, अथवा अविषयाणि-स्वोचिताहारायोग्यानि आहरन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - ‘गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सविसए आहारेति नो अविस ए आहारैति' स्वविषयाणि- स्वोचिताहारयोग्यानि आहरन्ति, नो अविषयाणि-स्वोचिताहारायोग्यानि आहरन्तीति ।। 'ताई भंते ! कि आणुपुचि आहारेंति अणाणुपुद्धि आहारेंति' यानि भदन्त ! स्वविषयाणि आहरन्ति । तानि भदन्त ! किम् आनुपूर्व्या आहरन्ति में आहृत करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! आदि पि आहारेंति मज्झे वि आहारेंति पज्जवसाणे वि आहारेंति' हे गौतम ! वे उपभोगोचित द्रव्यों के ग्रहण करने के काल के-एक अन्तर्मुहूर्त के प्रथम समय में भी मध्य के समय में भी और अन्त के समय में भी उन द्रव्यों का आहरण करते हैं । 'ताई भंते ! किं सविसए आहारेंति अविसए आहारेंति' हे भदन्त ! जिन द्रव्यों का ये अन्तर्मुहूर्त के आदि मध्य और अन्त में आहरण करते हैं वे द्रव्य क्या स्वोचित आहार के योग्य हैं इसलिए वे उनका आहरण करते हैं ! या वे जो स्वोचित आहार-के योग्य नहीं हैं ऐसे भी द्रव्यों का आहरण करते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! सविसए आहारेंति नो अविसए आहारेंति' हे गौतम ! वे स्वोचित आहार के योग्य हुए ही द्रव्यों का आहरण करते हैं, स्वोचित आहार के अयोग्य हुए द्रव्यों का आहरण नहीं करते हैं । "ताई भंते ! किं आणुपुट्विं आहारेंति अणाणुपुब्धि आहारेंति" हे-भदन्त ! वे उन स्वोचितआहार के योग्य हुए द्रव्यों __ महावी२ प्रभुनी उत्त२-"गोयमा ! आदिपि आहारेंति, मझे वि आहारेंति, पजनवसाणे वि आहारैति: 8 गौतम ! तेसो त अपलोगोथित द्रव्याने अड) ४२वाना बना -એક અન્તમું હૃર્તા પ્રમાણુ કાળના પ્રથમ સમયમાં પણ તે દ્રવ્યોને ગ્રહણ કરે છે. મધ્ય. સમયમાં પણ ગ્રહણ કરે છે અને અન્તિમ સમયમાં પણ ગ્રહણ કરે છે. गौतम स्वाभीनी प्रश्न-"ताई भंते ! किं सविसए आहारेंति, अविसप आहारेंति ?' હે ભગવન્! જે દ્રવ્યને તેઓ અન્તર્મુહૂર્તના આદિ મય અને અન્તિમ સમયમાં ગ્રહણ કરે છે, તે દ્રવ્ય શું ચિત આહારને યેગ્ય હોવાને કારણે તેમના દ્વારા ગ્રહણ કરાય છે, કે સોચિત આહારને યોગ્ય ન હોય એવા દ્રવ્યોને પણ તેઓ ગ્રહણ કરે છે ? महावीर प्रभुन। उत्त२-"गोयमा ! सविसए आहारेति नो अविसए आहारैति'' हे ગૌતમ! તેઓ ચિત આહારને યોગ્ય દ્રવ્યને જ ગ્રહણ કરે છે, સ્વોચિત આહરને દ્રવ્યને જ ગ્રહણ કરે છે, સ્વોચિત આહારને યેગ્ય ન હોય એવાં દ્રવ્યને તેઓ ગ્રહણ કરતા નથી. જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy