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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्रति० १ प्र. १ आहारद्वारनिरूपणम् ११३ अथवा अनानुपूर्व्या आहरन्ति 'अणाणुपुवि' इति सूत्रे द्वितीया तृतीयाविभक्तेरर्थे ज्ञातव्या प्राकृतत्वादिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा, हे गौतम ! ' आणुपुवि आहारेंति नो अणाणुपुवि आहारेंति' आनुपूर्व्या आहरन्ति नो-न तु अनानुपूर्व्या आहरन्ति ते सूक्ष्मपृथिवी कायिकास्तानि द्रव्याणीति भगवत उत्तरम्, आनुपूर्व्या एवोर्ध्वतिर्यग् अधोदिशि वा यथासन्नमाहरन्ति नतु अनानुपूर्व्या ऊर्ध्वमधस्तिर्यग् वा दिशि आहरन्तीति भावः ।। ' ताई भंते ! किं तिदिसिं आहारेंति चउदिसिं आहारेंति पंचदिसि आहारेंति छद्दिसिं आहारेंति' यानि भदन्त ! आनुपूर्व्या आहरन्ति तानि भदन्त ! किं त्रिदिशि । तिस्रो दिशाः समाहृता इति त्रिदिक् तत्र व्यवस्थितानि द्रव्याणि आहरन्ति किम् ? अथवा चतुर्दिशि पंचदिशि दिशि व्यवका जो आहरण करते हैं सो क्या वे उनका आनुपूर्वी - से आहरण करते हैं ? या अनानुपूर्वी से आहरण करते हैं ? | इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं- " आणुपुव्वि आहारेंति णो अापुवि आहारेंति" हे गौतम! वे उन द्रव्यों का आहरण आनुपूर्वी से करते हैं अनानुपूर्वी से नहीं करते हैं । आनुपूर्वी - अर्थात् यथाssसन्न - जैसा जैसा नजदीक हो वैसा-वैसाक्रमशः पास-पास का आहरण करते हैं । तात्पर्य कहने का यह है कि वे सूक्ष्मपृथिवीकायिक जीव ऊर्ध्व प्रदेशस्थित अधः प्रदेशस्थित एवं तिर्यक् प्रदेशस्थित स्वोचित आहार के योग्यद्रव्यों का आहरण आनुपूर्वी से ही करते हैं अनानुपूर्वी से नहीं करते हैं । "ताई भंते किं तिदिसिं आहारेंति चउदिसिं आहारेंति - पंचदिसिं आहारेंति छद्दिसि आहारेंति" हे भदन्त ! जिन द्रव्यों का वे आनुपूर्वी से आहरण करते हैं क्या वे द्रव्य तीन दिशाओं में व्यवस्थित होते हैं ? या चार दिशाओं में व्यवस्थित होते हैं ? या पांच गौतम स्वाभीना प्रश्न - " ताई भंते! किं आणुपुवि आहारेंति अणाणुपुवि आहाऐति ?” हे भगवन् ! तेथे ते स्वोचित आहारने योग्य द्रव्योनु शु मानुपूर्वी थी आईરણ (ગ્રહણ) કરે છે ? કે અનાનુપૂર્વી થી આહરણ કરે છે ? महावीर प्रभुना उत्तर 'आणुपुवि आहारेंति, णो अणाणुपुवि आहारेंति" हे गौतम! તે આનુપૂર્વી અનુસાર જ તે દ્રવ્યાનુ આહરણ કરે છે, અનાનુપૂર્વી અનુસાર તેમનું તેઓ આહરણ કરતાં નથી. આનુપૂર્વી અનુસાર ગ્રહણ કરવાના અથ આ પ્રમાણે છે— “यथाऽऽसन्नं” पडेसां सौथी पासेनां द्रव्यानुं, त्यार पछी ते द्रव्योनी पासेनां द्रव्योनु, આ રીતે ક્રમશઃ પાસે પાસેનાં દ્રવ્યાનુ આહરણ કરે છે-આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સૂક્ષ્મપૃથ્વીકાયક જીવો ઊર્ધ્વ, અધઃ અને તિસ્ પ્રદેશમાં રહેલાં સ્વાચિત આહારને ચાગ્ય દ્રવ્યાનુ આહરણ આનુપૂર્વી થી જ કરે છે, અનાનુપૂર્વી થી કરતા નથી, गौतम स्वामीने। प्रश्न- "ताई भंते! कि तिदिसि आहारेंति चउदिसिं आहारेति, पंचदिसि आहारेति, छद्दिसिं आहारेति !” हे भगवन् ! ? द्रव्यानु तेथेो मानुपूर्वी थी આહરણ કરે છે, તે દ્રબ્યા શું ત્રણ દિશાએમાં રહેલાં હોય છે ? કે ચાર દિશાઓમાં રહેલાં १५ જીવાભિગમસૂત્ર
SR No.006343
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1971
Total Pages656
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jivajivabhigam
File Size37 MB
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