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________________ ६८ राजप्रश्नीयसूत्रे गन्धितं गन्धवर्तिभृतं दिव्यं सुरवराभिगमनयोग्यं कुर्वन्ति, कारयन्ति च कृत्वा कारयित्वा च क्षिप्रमेव उपशाम्यन्ति उपशम्य यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य श्रमणं मगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वः यावत् वन्दित्वा नमस्यित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिकात् आम्रशालवनात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य तया उत्कृष्टया यावत् व्यतितुरुक्क धूवमघमघंतगंधद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधवट्टिभूयं दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करेंति य कारवेंति य ) वरसा करके कालागुरु, प्रवर कुन्दुरुष्क एवं तुरुष्करूप धूपों की जो मघमघायमान-अतिशयित-गंध है उसके फैलाव से रमणीय बना हुआ वह स्थान श्रेष्ठ सुगंध से सुगंधित होकर गंध की गुटिका जैसा बन गया। इस प्रकार से उन्होंने स्वयं उस स्थान को दिव्य एवं सुरवरों के अभिगमन योग्य बनाया और बनवाया ( करेत्ता य कारवेत्ता य खिप्पामेव उवसामंति ) इस तरह करके और करा करके वे अपनी कर्त्तव्य क्रिया से शीघ्र ही शान्त हो गये ( उवसामित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति) उस कार्य से निवृत्त होकर फिर वे जहां पर श्रमण भगवान् महावीर थे वहां पर आये ( तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्य अतियाओ अंबसालसणाओ चेइयाओ पडि निक्खमंति) वहां आकर के उन्होंने श्रमण भगवान् की तीन वार यावत् वन्दना की ४२री (वासित्ता कालागुरुपवरकुदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं दिव्वं सुरवराभिगमणजोग्गं करें ति य कारवेति य) वसावान गुरु, પ્રવર કુદુરુષ્ક અને તુરુષ્ક રૂપ ધૂપોની સુવાસથી તે સ્થાન મઘમઘાયમાનઅતિશય ઉગ્રસુગંધના પ્રસારથી રમણીય તેમજ ઉત્તમ સુગંધથી સુગંધિત થઈને ગંધની ગુટિકા જેવું થઈ ગયું. આ પ્રમાણે પોતે સ્થાનને દિવ્ય અને वतामना मभिगमन माटे योग्य सनावी ही ( करेत्ता य कारवेत्ता य खिप्पा मेव उवसामंति ) 241 प्रमाणे त म पू री तमन् मानमानी पासेथी ५५५ ४२११वीन तेसो पोतानु म म ४२ पु. ( उवसामित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति ) 20 मिथी ५२वारीन तो न्यi श्रमलन महावीर त त्यो माया. ( तेणेव उवागच्छित्ता समण भगवं महावीर तिक्खुत्तो जाव वदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ अंवसालवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति) त्यां मावीन तमो भए। ભગવાન મહાવીરની ત્રણ વખત યાવત્ વન્દના કરી નમસ્કાર કર્યો. વંદના અને શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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