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________________ सुबोधिनी टीका. सू. ८५ सूर्याभस्य इन्द्राभिषेकवर्णनम् । देवानुप्रियाः १ सूर्याभस्य देवस्य महार्थं महाघ महार्ह विपुलम् इन्द्राभिषेकम् उपस्थापयत । ततः खलु ते आमियोगिका देवाः सामानिकपरिषदुपपन्नकैदवेरेवमुक्ताः सन्तः हष्ट-यावद्-हृदया करतलपरिगृहीतं शिर आवात मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ‘एवं देवस्तथा'-इति आज्ञाया विनयेन वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति, 'तएणं सुरियाभस्स देवस्स' इत्यादि। सूत्रार्थ-(तएणं) इसके बाद (वरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववनगा देवा आमिओगिए देवे सद्दावेइ) सूर्याभदेव के सामानिकपरिषदुपपत्रक देवोंने आभियोगिकदेवों को बुलाया (सदावित्ता एवं वयासी) बुलाकर उनसे ऐसा कहा-(खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभस्स देवस्स महात्थं महग्धं महरिहं इंदाभिसेयं उवट्ठवेह) हे देवानुप्रियो ! तुमलोग सूर्याभदेव का महार्थमहाप्रयोजनवाला, महार्य अधिकमूल्यवाला, महार्ह-महाजनों के लायक, ऐसा विपुल इन्द्राभिषेक-इन्द्रपदमें अभिषेक के उपकरणों को उपस्थित करो (तएणं ते आभियोगिया देवा सामाणियपरिसोववन्नेहिं देवेहिं एवं बुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ जाव हियया करयलपरिग्गहिय सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु' 'एवं देवो तहत्ति' आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति) तव वे आभियोगिक देव जब सामानिकपरिषदुपपन्नकदेवोने इस प्रकार उनसे कहा तब हृष्टतुष्ट यावत् हृदय वाले हुए और उसी समय उन्होंने विनय से दोनों हाथ जोडकर 'आप जैसा कहते हैं हमे प्रमाण है' इस प्रकार से उनकी आज्ञा के 'तएणं सूरियाभस्स देवस्स' इत्यादि । सूत्रा--(तएण) त्या२५छी ( सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा आभिओगिए देवे सद्दावेइ) सूर्यामना सामान परिषदु५५-न देवास। मालिया४ि हेवाने मसाल्या. (सदावित्ता एवं वयासी) मालावीन । प्रमाणे : में (खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विउलं ईदाभिसेयं उववेह)वानुप्रिया! तो दो सूर्यामहेवना माय मर्डर કિંમતી, મહાઈ-ભદ્ર પુરુષો માટે યોગ્ય, એવા વિપુલ ઈન્દ્રાભિષેકઈન્દ્રપદ માટે लिये ४२वाना स ५४२६।।-पस्थित ४२१. (तए गं ते आभियोगिया देवा सामाणियपरिसोववन्नेहिं देवेहिं एवंवुत्ता समाणा हद्वतु? जाव हियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट "एवं देवो तहत्ति" आणाए विणएणं वयणं पडिसुगंति ) त्यारे ते मालियोnिs वामे सामानि परिषः५५न्न हेवोनी मेवी આજ્ઞા સાંભળી ત્યારે તેઓ હૃષ્ટ તુષ્ટ યાવત્ હૃદયવાળા થયા અને તત્કાલ તેઓ વિનંતી કરતા બનને હાથ જોડીને આપની જે આજ્ઞા છે તે અમારા માટે શ્રી રાજપ્રશ્નીય સૂત્ર: ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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