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________________ ३१४ राजप्रश्नोयसूत्रे खलु स सूर्याभो देवः श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा निजकपरिवारैः सार्द्धसंपरिवृतः तमेव दिव्यं यानविमानमारोहति, आरुह्य यामेव दिशं प्रादुर्भूतस्तामेव दिशं प्रतिगतः ॥ सू० ५० ॥ ___ 'तएणं से मूरियाभे देवे' इत्यादि टीका-ततः देवकुमार देवकुमारिकाणां सूर्याभदेवाज्ञा प्रत्यर्पणानन्तरम् खलु स:-पूर्वोक्तः सूर्याभो देवः, तां-पूर्वविकृतां दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युति दिव्यं देवानुभावं प्रतिसंहरति-स्वशरीरे प्रवेशयति, प्रतिसंहृत्य क्षणेन-एकेन क्षणलक्षण कालेन एकः एकभूतः-अनेक एकोभूत इति एकभूतः-एकत्वं गतः जातः-अभूत् , शेषं स्पष्टम् ॥ सू० ५० ॥ देवर्द्धिको दिव्य देवद्यतिको, और दिव्य देवानुभावको अपने शरीरमें प्रविष्ट कर लिया ( पडिसाहरेत्ता खणेणं जाए एगे एगभूए ) शरीरमें प्रविष्ट करके वह इस प्रकारसे एक ही-क्षणमें एकरूप हो गया. (तएणं से मूरियामे देवे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) इसके बाद उस सूर्याभदेवने श्रमणभगवान महावीरको तीनबार आदक्षिण प्रदक्षिणाकी (करित्ता वंदइ, नमसइ ) तीनबार आदक्षिणा प्रदक्षिणा करके फिर उसने उन्हें वन्दन किया-नमस्कार किया (वंदित्ता नमंसित्ता नियगपरिवारसद्धि संपरिखुडे तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ) वन्दना नमस्कार करके फिर वह अपने परिवारजनोंके साथ उसी दिव्य यानविमान पर आरूढ हो गया (दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिस पडिगए) आरूढ होकर फिर वह जिस दिशा से प्रकट हुआ था, आया था उसी दिशामें पीछे चला गया. ॥ सू०५०॥ ( पडिसाहरेत्ता खणेण जाए एगे एगभूए) शरीरमा प्रवेशीन. ते मी प्रमाणे मे ४ क्षणभा मे४३५ २६ गये. ( तएण से सूरियाभे देवे समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ) त्या२ ५छी ते सूर्यानवे श्रम भगवान महावीरने १५ १५त माक्षि प्रदक्षिण! ४री (करिता वंदइ, नमसइ) १५ વખત આદક્ષિણા પ્રદક્ષિણા કરીને પછી તેણે તેઓશ્રીને વંદન કર્યા–નમસ્કાર ४ा (वदित्ता नमंसित्ता नियगपरिवारसद्धिं सपरिवुडे तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुरूहइ ) ना तेभर नभ२४१२ १२ ते पाताना परिवारनी साथे ते हिय यान विमान ५२ मेसी गया. ( दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए) मेसीने ते २ हिश त२५थी ५४८ थये। तो-माव्य। तात? દિશા તરફ પાછો જતો રહ્યો છે. સુત્ર પ૦ છે શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧
SR No.006341
Book TitleAgam 13 Upang 02 Rajprashniya Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1990
Total Pages718
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_rajprashniya
File Size39 MB
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