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सुबोधिनीटीका मङ्गलाचरणम्
पृथ्वीच्छंदः (४) सगुप्ति-समिति समां विरतिमादधानं सदा.
क्षमावदखिलक्षमं कलितमञ्जुचारित्रकम् सदोरमुखवस्त्रिका-विलसिताननेन्दु-गुरूं,
प्रणम्य भववारिधिप्लवमपूर्वबोधप्रदम् ॥ ४ ॥ प्रकाशित कई पदार्थ बोधगम्य नहीं बनते हैं, परन्तु जिनके हृदय में केवलज्ञान का प्रकाश होता है, ऐसे मनुष्य को सूक्ष्म, दरार्थ और अन्तरित समस्त पदार्थ हस्तामलकवत् बोधगम्य हो जाते हैं। यह जिनवाणी जिनेन्द्र के मुख में निवास करती है । इसने अपनी निर्मलकान्ति से समस्त दिशाओं को प्रकाशित कर दिया है। अतः इसके प्रभाव से मुझे भी सज्ज्ञान का प्रकाश मिले ऐसी टीकाकारने अपनी भावना प्रकट की है । ॥३॥
'सगुप्तिसमिति समां विरतिमादधानं सदा' इत्यादि ।
अर्थ-(समा सगुप्तिसमिति ) सम्पूर्णरूप से पांच समिति एवं तीन गुप्तियों का पालन करने वाले (सदा विरतिं आदधानम् ) सदा सर्व विरति को धारण करने वाले, (क्षमावत् अखिलक्षमम् ) पृथ्वी की तरह सव प्रकार के परीपहों को सहने वाले, (कलितमजुचारित्रकम् ) निरतिचारचारित्र के पावन करने वाले, (अपूर्वबोधप्रदम् ) भव्यजीवों को अपूर्व आत्मबोध देने वाले ऐसे (गुरुम् ) गुरुदेव को कि जिनका (सदोरमुख वस्त्रिका विलसिताननेन्दुम् ) मुखचन्द्र કરતાં પણ વધારે છે. કેમકે પ્રકાશથી પ્રકાશિત થતા પણ કેટલાક પદાર્થો બોધગમ્ય થતા નથી, પરંતુ જેમના હૃદયમાં કેવલ જ્ઞાનને પ્રકાશ હોય છે. એવા માણસને સૂકમ, દૂરના અને અંતરિત રહેનારા બધા પદાર્થો હથેલી ઉપર મૂકેલા આમળાની જેમ સ્પષ્ટ પણે બોધગમ્ય હોય છે. આ જિનવાણી જિનેન્દ્રના મુખમાં વસે છે. એણે પિતાની નિર્મળ કાંતિથી બધી દિશાઓને પ્રકાશિત કરી દીધી છે. એવી ટીકાકારે પિતાની નમ્ર ભાવના પ્રકટ કરી છે. | ૩ |
'सगुप्तिसमितिं समां विरतिमादधानं सदा' इत्यादि ।
सूत्रा-(समां सगुप्तिसमिति) संपू पर पांय समिति भने । शुतिमाने पालनारा, ( सदा विरति आदधानम् ) ॥ सर्व वि२तिन था२६५ ४२ना२।, (क्षमावत् अखिलक्षमम् ) पृथ्वीनी रे मधी तना परीषाने सहन ४२॥२, (कलितमजुचारित्रकम् ) निरतियार यात्रिने पाना२१, (अपूर्वबोध प्रदम् ) भव्य वा उत्तम समयमा मापना२ मेवा (गुरुम् ) शु३३पने मनुं (सदोरमुखवस्त्रिकाविलसिताननेन्दुम् ) भुभय'म९७० मेशा सो२४ भुभवािथी
શ્રી રાજપ્રક્ષીય સૂત્રઃ ૦૧